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________________ आचार्य कुन्दकुन्द ] [ २१ परणमामि वड्ढमारणं तित्यं धम्मस्स कत्तारं । ' घर्मतीर्थं के कर्त्ता भगवान वर्द्धमान को नमस्कार करता हूँ ।" उक्त मंगलाचरणों पर ध्यान देने पर एक बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की वर्तमान चौबीसी के तीर्थंकरों का तो नाम लेकर स्मरण किया है, किन्तु जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों के तीर्थंकरों को नाम लेकर कहीं भी याद नहीं किया है। मात्र प्रवचनसार में बिना नाम लिए ही मात्र इतना कहा है -: "वंदामि य वट्ट ते अरहंते माणुसे खेत्ते । २ मनुष्यक्षेत्र अर्थात् ढाईद्वीप में विद्यमान अरहंतों को वंदना करता हूँ ।" इसी प्रकार प्रतिज्ञावाक्यों में केवली और श्रुतकेवली की वाणी के अनुसार ग्रन्थ लिखने की बात कही है । यहाँ निश्चित रूप से केवली के रूप में भगवान महावीर को याद किया गया है, क्योंकि श्रुतकेवली की बात करके उन्होंने साफ कह दिया है कि श्रुतकेवलियों के माध्यम से प्राप्त केवली भगवान की बात मैं कहूँगा । इसी कारण उन्होंने भद्रबाहु श्रुतकेवली को अपना गमकगुरु स्वीकार किया है । समयसार में तो सिद्धों को नमस्कार कर मात्र श्रुतकेवली को ही स्मरण किया है, श्रुतकेवली - कथित समयप्राभृत को कहने की प्रतिज्ञा की है, केवली की बात ही नहीं की है, फिर सीमन्धर भगवान की वारणी सुनकर समयसार लिखा है - इस बात को कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार की पाँचवीं गाथा की टीका में इस बात को और भी अधिक स्पष्ट कर दिया है । ↑ प्रवचनसार, गाथा १ २ प्रवचनसार, गाथा ३ ६ उनके मूल कथन का हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है : "निर्मल विज्ञानघन आत्मा में अन्तर्निमग्न परमगुरु सर्वज्ञदेव और अपरगुरु गणधरादि से लेकर हमारे गुरुपर्यन्त, उनके प्रसादरूप
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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