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________________ १८ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम कुछ समय पश्चात् गिरि-गिरनार पर श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया, तब ब्राह्मीदेवी ने स्वीकार किया कि दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है । अन्त में अपने शिष्य उमास्वामी को श्राचार्य पद प्रदानकर वे स्वर्गवासी हो गये ।" एक कथा 'पुण्यास्रव कथाकोश' में भी आती है, जिसका सार इसप्रकार है : "भरतखण्ड के दक्षिणदेश में 'पिडथनाडू' नाम का प्रदेश है । इस प्रदेश के अन्तर्गत कुरुमरई नाम के ग्राम में करमण्डु नाम का घनिक वैश्य रहता था । उसकी पत्नी का नाम श्रीमती था । उनके यहाँ एक ग्वाला रहता था, जो उनके पशु चराया करता था । उस ग्वाले का नाम मतिवरण था । एक दिन जब वह अपने पशुओं को एक जंगल में ले जा रहा था, उसने बड़े प्राश्चर्य से देखा कि सारा जंगल दावाग्नि से जलकर भस्म हो गया है, किन्तु मध्य के कुछ वृक्ष हरे-भरे हैं । उसे उसका कारण जानने की बड़ी उत्सुकता हुई । वह उस स्थान पर गया तो उसे ज्ञात हुआ कि यह किसी मुनिराज का निवास स्थान है और वहाँ एक पेटी में आगम ग्रन्थ रखे हैं । वह पढ़ा-लिखा नहीं था । उसने सोचा कि इस आगम के कारण ही यह स्थान आग से बच गया है । अतः वह उन्हें बड़े आदर से घर ले श्रया । उसने उन्हें अपने मालिक के घर में एक पवित्र स्थान पर विराजमान कर दिया और प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगा । कुछ दिनों के पश्चात् एक मुनि उनके घर पर पधारे। सेठ ने उन्हें बड़े भक्तिभाव से आहार दिया । उसीसमय उस ग्वाले ने वह आगम उन मुनि को प्रदान किया। उस दान से मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उन दोनों को आशीर्वाद दिया कि यह ग्वाला सेठ के घर में उसके पुत्ररूप में जन्म लेगा । तबतक सेठ के कोई पुत्र नहीं था। मुनि के प्राशीर्वाद के अनुसार उस ग्वाले ने सेठ के घर में पुत्ररूप में जन्म लिया और बड़ा होने पर वह एक महान मुनि श्रौर तत्त्वज्ञानी हुआ । उसका नाम कुन्दकुन्दाचार्य था ।"
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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