________________ अष्टपाहुड ] [ 103 सूत्र में कथित जीवादि तत्त्वार्थों एवं तत्संबंधी हेयोपादेय संबंधी ज्ञान और श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। यही कारण है कि सूत्रानुसार चलने वाले श्रमण कर्मों का नाश करते हैं। सूत्रानुशासन से भ्रष्ट साधु संघपति हो, सिंहवृत्ति हो, हरिहर-तुल्य ही क्यों न हो; सिद्धि को प्राप्त नहीं करता, संसार में ही भटकता है। अतः श्रमणों को सूत्रानुसार ही प्रवर्तन करना चाहिये। जिनसूत्रों में तीन लिंग (भेष) बताये गये हैं, उनमें सर्वश्रेष्ठ नग्न दिगम्बर साधुओं का है, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का है और तीसरा आयिकाओं का है। इनके अतिरिक्त कोई भेष नहीं है, जो धर्म की दृष्टि से पूज्य हो / साधु के लिंग (भेष) को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं :"जहजायरूवसरिसो सिलतुसमेत्तं रण गिहवि हत्थेसु / जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुरण जाइ रिणग्गोदम् // ' जैसा बालक जन्मता है, साधु का रूप वैसा ही नग्न होता है। उसके तिलतुषमात्र भी परिग्रह नहीं होता। यदि कोई साधु थोड़ाबहुत भी परिग्रह ग्रहण करता है तो वह निश्चित रूप से निगोद जाता है।" वस्त्र धारण किए हुए तो तीर्थंकरों को भी मोक्ष नहीं होता है, तो फिर अन्य की तो बात ही क्या करें? एक मात्र नग्नता ही मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं। स्त्रियों के नग्नता संभव नहीं है, अतः उन्हें मुक्ति भी संभव नहीं है। उनकी योनि, स्तन, नाभि और कांखों में सूक्ष्म त्रसजीवों की उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है / मासिक धर्म की आशंका से वे निरन्तर त्रस्त रहती हैं तथा स्वभाव से ही शिथिल भाववाली होती हैं, अतः उनके उत्कृष्ट साधुता संभव नहीं है; तथापि वे पापयुक्त नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्यग्दर्शन, ज्ञान और एकदेश चारित्र हो सकता है। इसप्रकार सम्पूर्ण सूत्रपाहुड में सूत्रों में प्रतिपादित सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी गई है। ' अष्टपाहुड : सूत्रपाहुड, गाथा 18