________________ 102 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम होंगे अर्थात् वे मिगोद में जावेंगे, जहां न तो चल-फिर ही सकेंगे और न बोल सकेंगे, उन्हें बोधिलाभ अत्यन्त दुर्लभ है / इसीप्रकार जो जीव लज्जा, गारव और भय से सम्यग्दर्शन रहित लोगों के पर पूजते हैं, वे भी उनके अनुमोदक होने से बोधि को प्राप्त नहीं होंगे। जिसप्रकार सम्यग्दर्शन रहित व्यक्ति वंदनीय नहीं है, उसीप्रकार असंयमी भी वंदनीय नहीं है। भले ही बाह्य में वस्त्रादि का त्याग कर दिया हो, तथापि यदि सम्यग्दर्शन और अंतरंग संयम नहीं है तो वह वंदनीय नहीं है। क्योंकि न देह वंदनीय है, न कुल वंदनीय है, न जाति वंदनीय है; वंदनीय तो एक मात्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप गुण ही हैं; अतः रत्नत्रय-विहीन की वंदना जिनमार्ग में उचित नहीं है। जिसप्रकार गुणहीनों की वंदना उचित नहीं है, उसीप्रकार गुणवानों की उपेक्षा भी अनुचित है / अतः जो व्यक्ति सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रवन्त मुनिराजों की भी मत्सरभाव से वंदना नहीं करते हैं, वे भी सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा नहीं हैं / अरे भाई ! जो शक्य हो, करो; जो शक्य न हो, न करो; पर श्रद्धान तो करना ही चाहिए, क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा है। यह सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में सार है, मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है। इस सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं। इसप्रकार सम्पूर्ण दर्शनपाहुड सम्यक्त्व की महिमा से ही भरपूर है। (2) सूत्रपाहुड सत्ताईस गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में अरहंतों द्वारा कथित, गणघर देवों द्वारा निबद्ध, वीतरागी नग्न दिगम्बर सन्तों की परम्परा से समागत सुव्यवस्थित जिनागम को सूत्र कहकर श्रमणों को उसमें बताये मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी गई है। क्योंकि जिसप्रकार सूत्र (डोरा) सहित सुई खोती नहीं है, उसीप्रकार सूत्रों (आगम) के आधार पर चलने वाले श्रमण भ्रमित नहीं होते, भटकते नहीं हैं।