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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १४ एतासु तिसृषु रीतिषु रेखाविव चित्र काव्यं प्रतिष्ठितमिति ॥ १३ ॥
तासां पूर्वा ग्राह्या गुणसाकल्यात् । १, २, १४ ।
[कर्म ] किया [जो कहने योग्य भी नहीं है और ] जिसके कारण यहां [ग्राम ] के लोग [ पथिक के ] वध के दण्ड की शङ्का से भयभीत हैं।
करङ्क शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'शव' और 'तत्कृत' से पथिक की मृत्यु सूचित होती है, ऐसी व्याख्या की है । अर्थात् वर्षा की रात्रि मे मेघों के गर्जन को सुनकर और अपनी प्रिया का स्मरण कर वह पथिक युवक इतना दुःखी और उत्तेजित हुअा कि दुःख के आवेग में उसकी मृत्यु हो गई। प्रातःकाल उसका शव पड़ा मिला। जिसके कारण यहा लोग यह समझने लगे कि इस पथिक की हत्या का दोष हमारे सिर पड़ेगा कि गाव वालो ने इसे मारकर इसका धन आदि छीन लिया है। इसलिए इसका दण्ड गाववालों को भोगना पड़ेगा। इस भय से ग्राम के लोग अाज तक भयभीत हैं। इसलिए तब से इस गाव में रात्रि में किसी पथिक को ठहरने की अनुमति न दिए जाने का नियम बना लिया है।
किसी गृहस्थ के यहा कोई पथिक रात्रि को ठहरने के लिए स्थान मागने गया। उसके उत्तर में गृहपति, गृहस्वामिनी अथवा कुलवृद्धा का यह वचन उस दूसरे पथिक के प्रति कहा गया है।
इस पद्य में माधुर्य और सौकुमार्य गुण स्पष्ट प्रतीत हो रहे हैं और उनके कारण सम्पूर्ण पद्य सौन्दर्ययुक्त प्रतीत होता है इसलिए ग्रन्थकार ने इसे 'पाञ्चाली रीति' के उदाहरण रूप मे प्रस्तुत किया है।
इन तीन रीतियों के भीतर काव्य इस प्रकार समाविष्ट हो जाता है जिस प्रकार रेखाओं के भीतर चित्र प्रतिष्ठित होता है ॥ १३॥
इस प्रकार रीतियो का निरूपण करने के बाद उनके श्रापेक्षिक महत्त्व तथा उपादेयता के तारतम्य का प्रश्न स्वयं उपस्थित हो जाता है। क्या ये तीनों रीतिया समान महत्व की हैं अथवा उनकी उपादेयता में तारतम्य है। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए ग्रन्थकार अगला प्रकरण प्रारम्भ करते हैं।
उनमें से प्रथम [अर्थात् वैदर्भी रीति समस्त [अर्थात् दशों ] गुणों से युक्त होने के कारण ग्राह्य है। [शेष दोनों उतनी ग्राह्य नहीं हैं ] ।