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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ५ क्षीयते इति कर्मकर्तरि । ५, २, ५ । क्षीयते इति प्रयोगो दृश्यते । स कर्मकर्तरि द्रष्टव्यः । क्षीयतेरनात्मनेपदित्वात् ॥ ५॥
पद प्रयोगो के समर्थन का प्रकार अगले दो सूत्रो में दिखलाते है। इन दोनो • प्रयोगो का समर्थन ग्रन्थकार ने कर्मकर्ता मे उनका प्रयोग मान कर किया है। जव सौकर्य के अतिशय के द्योतन के लिए कर्तृत्व की अविवक्षा हो जाती है तव कर्म, करण आदि अन्य कारक भी कर्ता का स्थान ग्रहण कर लेते है। जैसे हम कलम से लिखते है । लिखने मे कलम साधन या करण है। परन्तु कभी कभी 'यह कलम वडा अच्छा लिखती है' अथवा 'यह कलम तो चलती ही नहीं इस प्रकार के प्रयोग करते हैं। यहाँ वास्तविक कर्ता मे कर्तृत्व की अविवक्षा होने से करणभूत कलम मे कर्त त्व आ जाता है । 'साध्वसिक्छिन त्ति' आदि प्रयोग ऐसे ही है। इसी प्रकार ओदनं पचति', 'काष्ठ भिनत्ति' आदि वाक्यो मे जव सौक
तिशय द्योतन के लिए कर्तत्व की अविवक्षा होती है तव कर्मरूप ओदन तथा काण्ठ भी कर्ता का स्थान ले लेते है। तव 'पच्यते ओदन स्वयमेव, 'भिद्यते काष्ठ स्वयमेव' इस प्रकार के प्रयोग होते है । इन्ही को कर्मकर्ता मे प्रयोग कहते है । जब कर्म कारक कर्ता का स्थान लेता है तब "कर्मवत् कर्मणा तुल्य क्रिय' सूत्र से कर्मवद्भाव होने से यक्, आत्मनेपद, चिण्वद्भाव, चिण्वद् इट् आदि कार्य होते है । इसलिए जिन धातुओ से साधारणतः कर्ता में प्रत्यय होने की अवस्था में परस्मैपद होता है जैसे 'ओदन पचति'. 'काष्ठ भिनत्ति आदि में उन्ही धातुओ के कर्मकर्ता मे यक् प्रत्यय और आत्मनेपद होकर 'पच्यते ओदन "भिद्यते काण्ठ' इस प्रकार के प्रयोग होते है । यह 'कर्मकर्ता के प्रयोग कहलाते है । इसी प्रकार 'क्षीयतें' तथा 'खिद्यते' प्रयोग भी कर्मकर्ता मे होने से उनमे आत्मनेपद होता है इस बात का प्रतिपादन अगले दो सूत्रो मे करते है।
क्षीयते यह [प्रयोग ] कर्मकर्ता में [ होने से यहां प्रत्मनेपद ] है ।
क्षीयते यह प्रयोग देखा जाता है । वह कर्मकर्ता में समझना चाहिए । "क्षि' धातु के परस्मैपदी होने से ।
क्षि' धातु, धातुपाठ मे तीन जगह आया है। पहिला भ्वादि गण मे 'क्षि क्षये' धातु आया है, वह अकर्मक है । उसका 'क्षयति' रूप वनता है । दूसरा
१अष्टाध्यायी ३, १, ८७ ।