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________________ सूत्र ४ ] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः किं पुनस्तज्ज्ञापकमत आह [ २९९ चक्षिङो द्व्यनुबन्धकरणम् । ५, २, ४ । चचिङ इकारेणैवानुदात्तेन सिद्धमात्मनेपदं किमर्थ डित्करणम् । यत् क्रियते श्रनुदात्तनिमित्तस्यात्मनेपदस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम् । एतेन वेदि-भसि तर्जि-प्रभृतयो व्याख्याताः । श्रवेदयति, भर्त्सयति तर्जयति इत्यादीनां प्रयोगाणां दर्शनात् । अन्यत्राप्यनुदात्तनिवन्धनस्य श्रात्मनेपदस्यानित्यत्वं ज्ञापकेन द्रष्टव्यमिति ॥ ४ ॥ श्रात्मनेपदम्' इस सूत्र से विहित ] जो श्रात्मनेपद हुआ है वह 'लज्जालोलं वलन्ती' इत्यादि प्रयोगो में अनित्य दिखलाई देता [ पाया जाता ] है । वह [ 'वलन्ती' पद में परस्मैपदनिमित्तक शतृ प्रत्यय ] कैसे हुआ [ इस शङ्का के होने पर उस के समाधान के लिए ] यह कहते है । [ चक्षिड् धातु में इकार तथा डकार अनुदात्तेत् और डित्करण रूप अनुबन्धद्वय की रचना रूप ] ज्ञापक के होने से । [ अनुदात्तेत् निमितक श्रात्मनेपद की अनित्यता होने से 'वलन्ती' में श्रात्मनेपद को अनित्य मान कर ही कवि ने 'बलन्ती' पद का प्रयोग किया है ] ॥ ३ ॥ [ 'वलन्ती' में अनुदात्तेत् निमित्तक आत्मनेपद की प्रनित्यता का ] वह ज्ञापक क्या है । इसके [ दिखलाने के ] लिए [ अगले सूत्र में ज्ञापक ] कहते है --- afts [ धातु ] के [ इकार और डकार रूप ] दो अनुबन्धों का करना [ ही इस विषय में ज्ञापक है ] । चक्षि [ धातु में ] के अनुदात्त 'इकार' [ के इत् होने ] से ही [ 'अनुदातडित श्रात्मनेपदम्' इस सूत्र से ] श्रात्मनेपद सिद्ध हो सकता है फिर डिस्करण किसलिए किया है । जो [ यह डित्करण ] किया है वह अनुदात्तेत् निमित्तक श्रात्मनेपद के अनित्यत्वज्ञापन के लिए [ ही ] किया है । इस [ अनुदात्तेत्-निमित्तक श्रात्मनेपद के श्रनित्यत्व-ज्ञापन ] से वेदि, भत्स, र्ताज प्रभृति [ धातुत्रो में अनुदात्तेत् अर्थात् इकार की इत् सज्ञा होने पर भी प्रात्मनेपद के न होने के कारण ] की व्याख्या हो गई । [ उन धातु के प्रनुदात्तेत्होने पर भी श्रनुदात्तेत्-निमित्तक श्रात्मनेपद के अनित्य होने से ही ] प्रवेदयति, भर्त्सयति, तर्जयति श्रादि [ परस्मैपद के ] प्रयोग देखे जाने से । [ चक्षिड् धातु से ] अन्यत्र भी अनुदात्तनिमित्तक श्रात्मनेपद का प्रनित्यत्व [इस ] ज्ञापक से समझना चाहिए ॥ ४ ॥ इस प्रकार आत्मनेपदी धातुओ के परस्मैपद के रूपो का समर्थन कर आगे परस्मैपदी 'क्षि' ओर खिद आदि धातुओ के 'क्षीयते', 'खिद्यने' आदि आत्मने
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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