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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र २
एकं पदं न द्विः प्रयोज्यं प्रायेण बाहुल्येन । यथा पयोद पयोद इति । किञ्चिदेव चादिपदं द्विरपि प्रयोक्तव्यमिति । यथासन्तः सन्तः खलाः खलाः ॥ १ ॥
नित्यं संहितैकपदवत् पादेष्वर्धान्तवर्जम् । ५, १, २ ।
एक पद का [ एक साथ या एक वाक्य में ] दो बार प्रयोग अधिकता से नही करना चाहिए । [ क्योकि इस प्रयोग की पुनरुक्ति से काव्य को शोभा नहीं रहती है । और कवि की शक्ति का परिचय मिलता है ] । जैसे 'पयोद पयोद' [ इस प्रकार का प्रयोग किसी कवि ने किया है, वह अनुचित है ] । 'च' श्रदि कोई-कोई पद ही [ एक ही वाक्य मे ] दो बार भी प्रयुक्त हो सकते है । जैसे-
सज्जन [ पुरुष ] सज्जन ही होते हैं और दुष्ट दुष्ट ही ठहरे ।
यहा दूसरा 'सन्त' पद दयाभावनादिविशिष्ट सन्त का बोधक होने से और दूसरा खल शब्द क्रूरत्वादि विशिष्ट खल अर्थ का बोधक होने से विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसलिए पुनरुक्त न होने से दोषाधायक नही है ।
वाराणसीय प्रथम सस्करण में इस सूत्र की वृत्ति में 'किञ्चिदिवादिपद द्विरपि प्रयोक्तव्यमिति' इस प्रकार का पाठ दिया हुआ है । इसकी व्याख्या करते हुए त्रिपुरहर भूपाल ने लिखा है
किञ्चिदिति यथा---
ते च प्रापुरुदन्वन्त बुबुधे चादिपुरुष । इति ।
इसे टीकाकार ने 'किञ्चिदिवादिपद' का उदाहरण दिया है । इस उदाहरण में चकार का दो बार प्रयोग किया गया है । इसलिए यह चादि पद के द्वि प्रयोग का उदाहरण हुआ । इससे प्रतीत होता है कि वृत्तिग्रन्थ में च छपने में छूट गया है । और इव के स्थान पर एव पाठ उचित प्रतीत होता है | इसलिए 'किञ्चिदिवादि पद' के स्थान पर 'किञ्चिदेव चादिपद' पाठ होना चाहिए था । 'किञ्चिदिवादिपद' पाठ ठीक नही है । इसीलिए हमने यहा मूल मे 'किञ्चिदेव चादिपद' यह पाठ ही रखा है । आदि पद से पादानुप्रास, पादयमक आदि में द्वि प्रयोग उचित ही है यह बात सूचित की है ॥ १ ॥
काव्य निर्माण करते समय ध्यान रखने योग्य दूसरा नियम या 'काव्यसमय' बतलाते है
एक पद के समान [ श्लोक के ] पादो मे [ आए हुए पदो में ] सन्धि श्रवश्य [ नित्य ] करनी चाहिए । [ श्लोकार्थं रूप ] श्रर्धान्त को छोड़ कर ।