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'प्रायोगिक नाम पञ्चममधिकरणम्
प्रथमोऽध्यायः
[काव्यसमयः] सम्प्रति काव्यसमयं शब्दशुद्धिश्च दर्शयितु प्रायोगिकाख्यमधिकरणमारभ्यते । तत्र काव्यसमयस्तावदुच्यते ।
__ नैक पदं द्वि. प्रयोज्य प्रायेण । ५, १, १ ।
पञ्चम अधिकरणका प्रथम अध्याय पिछले अधिकरणो मे से 'शारीर' नामक प्रथम अधिकरण मे काव्य का प्रयोजन, रीति तथा काव्याङ्गो का, 'दोपदर्शन' नामक द्वितीय अधिकरण मे शब्द-दोप और अर्थ-दोपो का, 'गुणविवेचन' नामक तृतीय अधिकरण मे गुण तथा अलवार का भेद और गब्द-गुण तथा अर्यगुणो का, और चतुर्य अधिकरण मे शब्दालड्कारो तथा उपमा और उपमाप्रपञ्च रूप अन्य अर्थालङ्कारो का विवेचन कर चुके है । इस प्रकार काव्यालङ्कार ग्रन्थ का विषय प्राय प्रतिपादित हो चुका है । अव 'प्रायोगिक' नामक इस पञ्चम अधिकरण मे 'काव्य-समय' अर्थात् काव्य की अनुसरणीय परम्पराओ ओर 'शब्दशुद्धि' रूप प्रयोगसम्बन्धी वातो का निरूपण करेंगे इमलिए इस अधिकरण का नाम 'प्रायोगिक' अधिकरण है । इसके दो अध्याय है । जिनमे से पहले अध्याय मे 'काव्य-समय' अर्थात् महाकवियो की काव्यसम्बन्धी परम्पराओ का निरूपण प्रारम्भ करते है।
अब [ इस पञ्चम अधिकरण में ] 'काव्य-समय' [ काव्य में ध्यान देने योग्य आचार या परम्परानो ] और शब्दशुद्धि के दिखलाने के लिए 'प्रायोगिक' नामक [ यह पञ्चम] अधिकरण प्रारम्भ करते है । उसमें पहिले [प्रयम अध्याय में ] 'काव्य-समय' [ काव्य के परम्पराप्राप्त नियम या प्राचार] कहते हैं।
[काव्य में प्राय एक पद का दो बार[एक साय या एक वाक्य में ] प्रयोग नही करना चाहिए।