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२१२] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र १४ समासाभिहितायां यथा-'भुजलता नीलोत्पलसरशी' इति । उपमाप्रपन्चे यथा
शुद्धान्तदुर्लभमिदं वपुराश्रमवासिनो यदि जनस्य ।
दूरीकृताः खलु गुणैरुद्यानलता वनलतामिः ॥ एवमन्यदपि प्रयोगजातं द्रष्टव्यम् ॥ १४ ॥ लिङ्ग में और उपमान पुरुष पुलिङ्ग में है। परन्तु यहाँ भी लिङ्गभेद को दोष नही माना जाता है । इसका कारण यह है कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग के प्रचुर मात्रा में पाए जाने से इस प्रकार के प्रयोग को इष्ट ही मानना पड़ता है।
समासाभिहित [ उपमा ] में [ लिङ्गभेद की अघोषता का उदाहरण ] जैसे--'भुजलता नीलोत्पलसदृशी' [इस उदाहरण में उपमेय 'भुजलता' स्त्रीलिङ्ग है और उपमानभूत 'नीलोत्पल' नपुसकलिङ्ग है । परन्तु 'नीलोत्पलसदृशी' इस समास में आ जाने से नीलोत्पल का नपुसकत्व दब जाता है इसलिए वह दोष बाधक नहीं रहता है ।
उपमा के [ प्रतिवस्तूपमा प्रादि भेदों में लिङ्गभेव को श्रदोषता का उदाहरण ] जैसे
महलो में भी दुर्लभ यह शरीर यदि प्राश्रमवासी [ इस शकुन्तला रूप] जन का हो सकता है [ यदि एक तपस्विनी वनवासिनी को भी रानियो से बढ़ कर इस प्रकार का अलौकिक देह-सौन्दर्य प्राप्त हो सकता है ] तो [निश्चय हो ] वन को [ जंगली ] लताओं से उद्यान की लताएँ तिरस्कृत हो गई।
कालिदास के शकुन्तला नाटक मे शकुन्तला को देखकर यह राजा दुष्यन्त की उक्ति है। इसमें 'प्रतिवस्तूपमा' अलङ्कार है । 'प्रतिवस्तूपमा' का लक्षण विश्वनाथ ने इस प्रकार किया है :
'प्रतिवस्तूपमा सा स्याद् वाक्ययोर्गम्यसाम्ययो.।
एकोऽपि धर्म. सामान्यो यत्र निर्दिश्यते पृथक् ।। इस प्रकार [प्रतिवस्तूपमा के उदाहरणभूत ] अन्य प्रयोग भी समझ लेने चाहिएं ॥१४॥
इस प्रकार लिङ्गभेद और उसके अपवाद स्थलो को दिखलाने के बाद ग्रन्थकार चतुर्थ उपमादोष 'वचनभेद' की व्याख्या अगले सूत्र में करते है ।
'साहित्यदर्पण १०,५०।