________________
सूत्र १४]
चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२११ पुन्नपुसकयोरुपमानोपमेययोलिङ्गभेदःप्रायेण बाहुल्येनेष्टः । यथा 'चन्द्रमिव मुखं पश्यति' इति । 'इन्दुरिव मुखं भाति', एवम्प्रायन्तु नेच्छन्ति ॥ १३ ॥ लौकिक्यां समासाभिहितायामुपमाप्रपञ्चे । ४, २, १४ ।
लौकिक्यामुपमायां समासानिहितायामुपमायामुपमाप्रपन्चे चेष्टो लिङ्गभेदः प्रायेणेति । लौकिक्यां यथा 'छायेव स तस्याः', 'पुरुष इव स्त्री'
इति।
पुलिङ्ग और नपुसक लिङ्ग उपमान और उपमेय का लिङ्गभेद बहुधा इष्ट होता [ दोष नहीं माना जाता है। जैसे 'चन्द्रमिव खं पश्यति'-चन्द्रमा के समान मुख को देखता है। यहां [ उपमानभूत 'चन्द्र' शब्द पुलिङ्ग है और उपमेयभूत मुख शब्द नपुसक लिङ्ग है। ऐसा लिङ्गभेद होने पर भी कवियो में इस प्रकार का बहुल प्रयोग होने के कारण उसको दोष नहीं माना जाता। उस प्रकार का प्रयोग कवियो को इष्ट है परन्तु उसी के आधार पर 'इन्दुरिव मुखम्' इस प्रकार के प्रयोग को प्रायः [ कवि गण] पसन्द नहीं करते है। [इसमें भी 'इन्दु' शब्द पुलिङ्ग और 'मुखम् शब्द नपुंसक लिङ्ग है। परन्तु इस प्रयोग को कविगण नहीं पसन्द करते है। इसलिये इसमें लिङ्गभेद दोष होगा। इसी के बोधन के लिए अपवाद सूत्र में 'प्रायेण पद का ग्रहण किया है] ॥१३॥
इसी प्रकार लिङ्गभेद दोप के और भी अपवाद अगले सूत्र मे दिखलाते है।
१. लौकिकी [ उपमा ] में, २. समासाभिहित [ उपमा ] में और ३ उपमा के [प्रतिवस्तूपमा प्रादि अन्य ] भेदो में [ भी लिङ्गभेद इष्ट है। दोष नहीं होता है ।
लौकिको उपमा में, समासाभिहित उपमा.में और उपमा के [प्रतिवस्तूपमा आदि ] भेदो में लिङ्गभेद प्रायः इष्ट होता है । [दोष नहीं होता। जैसे लौकिको [ उपमा ] में 'स तस्याः छाया इव' वह [पुरुष ] उस [स्त्री] की छाया के समान है। [ इसमें उपमेय 'स' पुल्लिङ्ग और उपमानभूत 'छाया' स्त्रीलिङ्ग है। परन्तु यह लिङ्गभेद दोष नहीं माना जाता। [अथवा इसी का दूसरा उदाहरण जैसे यह ] स्त्री पुरुष के समान है। [यहाँ उपमेय 'स्त्री' स्त्री