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________________ पर उनका मुस्काराता चेहरा देखकर भय-सा होता है कि अगली ही घड़ी इन्हें कहीं झींकना तो नहीं पड़ेगा ! पुस्तकमें उसी रईस और कुलीन, लेकिन मिलनसार, वेदनामें भीनी, खुली और साफ तबीयतकी झलक मिलती है। मनका खोट कहीं नहीं है, पर मिज़ाज जगह जगह है। निकट भूत और वर्तमान जीवनके प्रति असंलग्नता पुस्तकमें प्रमाणित नहीं हुई है, फिर भी, एक विशेष प्रकारको हृदयकी सच्चाई यहाँसे वहाँ तक व्याप्त है। पुस्तकमें अन्तकी ओर खासे लम्बे विवेचन और विवाद है। हमारे अधिकतर विवाद शब्दोका ममेला होते है । जब तक मतियाँ मिन हैं, तब तक एक शब्दका अर्थ एक हो ही नहीं सकता । सजीव शब्द अनेकार्थवाची हुए बिना जियेगा कैसे? यह न हो तो वह शब्द सजीव कैसा ! पर जवाहरलालजी इसी कथनपर विवादपर उतारू हो सकते हैं । उन्होंने एक लेखमें लिख भी दिया था कि एक शब्द दिमागपर एक तस्वीर छोड़ता है और उसे एक ओर स्पष्टार्थवाची होना चाहिए वगैरह वगैरह.... पर, वह बात उनकी अपनी अनुभूत नहीं हो सकती । सुननेमें भी वह किताबी है। इसलिए, उन विद्वत्तापूर्वक किये गये विवादोंको हम छोड़ दें। यह अपनी अपनी समझका प्रश्न है । कोई नहीं कह सकता है कि जवाहरलाल गलत है, चाहे वह यही कहें कि वह और वही सही है। जवाहरलालजी आजकी भारतकी राजनीतिमें जीवित शक्ति हैं। उनके विश्वास रेखाबद्ध हों, पर वे गहरे हैं । कहनेको मुझे यही हो सकता है कि रेखाबद्ध होनेसे उनकी शक्ति बढ़ती नहीं घटती है, १२०
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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