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________________ अनादरकी भावनामेसे कोई निर्माण नहीं हो सकता। सर्जन स्लेहद्वारा ही संभव है। पर यहाँ भूल न हो । जीवन निरी मुलायम चीज़ नहीं है। वह युद्ध है । वह इतना सत्य है कि काल भी उसे कभी तोड़ नहीं सकता । निरंतर होती हुई मृत्युके वावजूद जीवनको धारा अनवच्छिन्न भावसे बहती चली आ रही है, बहती चली जायगी। सत्यको सदा ही असत्से मोर्चा लेना होगा, जबतक व्यक्ति है तब तक युद्ध है। वहाँ कोई समझौता नहीं है, और कोई अंत नहीं है। पर युद्ध किससे ? व्यक्तिसे नहीं, घनीभूत मैलसे । पापीसे नहीं, पापसे । क्योंकि जिसे पापी माना है, उसके भीतर आत्माकी आग है और आग सदा उज्ज्वल है। वह पापको क्षार करती है। यह ..पापसे अडिग भावसे जूझनेकी क्षमता पापीको प्रेम और उसके भीतरकी आगमे विश्वास करनेकी साधनामेसे पावेगी। मैने आपका बहुत समय लिया। इस समयमें जो सूझा है मै. कहता रहा हूँ। आप मेरे प्रति करुणाशील हुए तो मै यह अपना कम लाभ नहीं मानूंगा । आप देखते तो है कि आपकी कृपाका मैने कैसा फायदा उठा लिया है। मै उस सबके लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ और आपको फिर धन्यवाद देता हूँ।
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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