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________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान अधिक सफल और कर्म अधिक सार्थक बनता है । इस एकताके साथ तीनो ( भावना, शब्द, कृत्य ) अलग अलग भी अपने आपमें सत्यतर बनते है । उस एकताके अभाव मे तीनो झूठ हो जाते हैं । तभी तो प्रमत्तका स्वम, दम्भीके मुखका शास्त्र - वचन, और पाखण्डीका धर्म-कर्म अपने आपमे सुन्दर होते हुए भी असत्य हो जाता है । राजनीति से अधिक साहित्यके क्षेत्रमे यह एकता जरूरी है । क्योकि स्थूल कर्मका परिणाम तो थोड़ा बहुत होता भी है पर शब्द में तो वैसी स्थूल शक्ति है नहीं, उसमे उतनी ही शक्ति है जितनी अपने प्राणोसे हम उसमे डाल सकते हैं । अतः, साहित्यकार के लिए मन-वचन-कर्म की एकता साधना जरूरी मानना चाहिए । एक बात और, और बस । एक प्रकारसे वह ऊपर भी आ गई है, पर उसको स्पष्ट कह देना भला ही हो सकता है । वह यह कि हमको सबके प्रति विनयशील होना होगा । अविनय जड़ता है । जीवन पवित्र तत्व है और साहित्यके निकट, क्योंकि, सब कुछ सजीव है इससे साहित्य - रसिकके लिए सब कुछ पवित्र है । उसके मनमे किसीके लिए अबज्ञा नहीं हो सकती। ऐसी अवज्ञाके मूलमे अहंकार और पूर्णता है । इस बातके संबंध मे अधिकसे अधिक सावधानी भी इसलिए कम है कि आज चारो ओर राजनीतिक प्रचारके कारण सहानुभूतिकी मर्यादा - रेखाएँ खीच दी गई है और प्रेम दलोंमे बॅट गया है। इस भाँति अवज्ञाकी भावना सहज भाव में घर कर जाती है और वह उपयुक्त भी जान पड़ने लगती है । पर निश्चय रखिए कि ९५
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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