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________________ जाय ! इसमें हिन्दीके वर्तमान रूपपर, आजकी बनावटपर, निस्सन्देह बहुत दबाव पड़ेगा। लेकिन, जिसको बड़ा बनाया जाता है उसको उतना ही अपना अहंकार छोड़कर सबका आभार स्वीकार करना होता है । इसी तरह, जब हिन्दीके कन्धोंपर भारी दायित्व आ गया है, तब उस हिन्दीको अपना जीवन सर्व-सुलभ, विशद और निराग्रही बनानेमें आपत्ति नहीं करनी होगी। उसे अपने योग्य ऊँचाई तक उठना होगा । और, जो हिन्दीका साहित्यकार इस विषयमें जाग्रत् न होकर आग्रही होगा, मुझे भय है कि वह राष्ट्रभाषा हिन्दीसे की जानेवाली प्रत्याशाएँ पूरी न कर सकेगा। अब दिन दिन हमारे जीवनका और अनुभूतियोका दायरा बढ़ता जाता है । हमारी चेतना घिरी नहीं रहना चाहती। हम रहते है तो अपने नगरमे, पर जिले और प्रान्तके प्रति भी आत्मीयता अनुभव करते है । इसके आगे हमारा देश भी हमारे लिए हमारा है। उसके भी आगे अगर हम सच्चे है और जगे हुए हैं, तो इतनेमे भी हमारी तृप्ति नहीं है। हम समूची मानवताको, निखिल ब्रह्मांडको, अपना पाना चाहते है । 'हम सबके हों', 'सब हमारे हों'यह आकांक्षा गहरीसे गहरी हमारे मानसमें बिधी हुई है। यह आकांक्षा अपनी मुक्ति-लाभ करनेकी ओर बढ़ेगी ही। उस सिद्धिकी ओर बढ़ते चलना ही सच्ची यात्रा और सच्ची प्रगति है। ___ अब निरन्तर होती हुई प्रगतिके बीच बिलकुल भी गुंजाइश नहीं है कि हम अपनेको समस्तसे काटकर अलहदा कर लें । वैसी पृथक्ता भ्रम है, झूठ है । और जहाँ उस पार्थक्यकी भावनाका सेवन है, जहाँ पार्थक्य सहा नहीं वरन् आसक्ति-पूर्वक अपनाया जाता
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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