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________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान* भाइयो, आपने इस संघके वार्षिकोत्सवपर इतनी दूरसे मुझे बुलाया, इसमें मेरे संबंधमें कुछ आपकी भूल मालूम होती है। आ तो मै गया, क्योकि, इनकार करनेकी हिम्मत मुझे नहीं हुई। लेकिन, अब तक मुझको आश्वासन नहीं है कि आपने मुझे बुलाकर और मैने आकर सत्कर्म किया है। लोकन, जो हुआ हो गया | अब तो हम सबको उसका फल-भोग ही करना है। और इस सिलसिलेमें आपके समक्ष पहले ही यह कहना मेरी किस्मतमें बदा है कि मै साहित्यका ज्ञाता नहीं हूँ साहित्यमें विधिवत् दीक्षित भी नहीं हूँ। लेकिन, साहित्य-सम्बन्धी उत्साहके बारेमे भी मेरा अनुभव है कि किन्हीं लौकिक हेतुओंपर टिककर वह अधिक प्रवल नहीं होता। लाम और फलकी आशा मूलमें लेकर कुछ काल बाद वह उत्साह मुझाने भी लगता है । स्थूल लाम वहाँ नहीं है । इसलिए, साहित्यसंबंधी उत्साहको अपने वलपर ही जीवित रहना सीखना है। अँधेरेसे घिरकर भी वत्ती जैसे अपनी लोमे जलती रहती है और जलकर उस अंधकारके हृदयको प्रकाशित करती है, उसी भाँति, उस उत्साहको अपने आपमें जलते रहकर स्व-परको प्रकाशित करना है। साहित्यका यही विलक्षण सौभाग्य है, दुर्भाग्य इसे नहीं मानना चाहिए । अमान्यताके बीचमें वह पलता और जीता है, फिर भी, * सुहृद्-संघके (मुजफ्फरपुर) वार्षिकोत्सवपर दिया गया भाषण ।
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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