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वक्तव्य
इस किताबके नामसे शंका होती है कि जैनेन्द्र कोई व्यक्ति होगा जो अपना जीना जी चुका है। मिट्टी उसकी ठंडी हुई। बस, अब उसको लेकर जाँच-पड़ताल और काट-फाँस होगी। पाठक निराश तो कदाचित् हों, पर सच यह है कि अभी वह समाचार सच नहीं है । जैनेन्द्रके मरनेकी खबर अभी मुझको भा नहीं मिली। पाठकको मुझसे पहले वह सूचना नहीं मिलेगी। इसमें आग्रह व्यर्थ है । फिर भी, उसके जीते जी यह जो उसकी इधर-उधरकी बातोंको आंकने और भेदनेका यत्न है, यह क्या है ? ठीक मालूम नहीं, पर यह ज्यादती तो है ही । इस कर्मका मूल्य भी अनिश्चित है ! बहते पानीकी नाप-जोख पक्की नहीं उतरेगी। उसके बँध रहनेकी प्रतीक्षा उचित है। फिर भी आदमी है कि चैनसे नहीं बैठता । जीवन-मुक्तिके निमित्त उसके नियम पाना और बनाना चाहता है, और उस निमित्त उसी जीवनको घेरोंसे बाँधता-कसता है । यह मानव-पद्धति विचित्र है, पर अनिवार्य भी है। तो क्या किया जाय ? उपाय यही है कि अपने ऊपरकी शल्यक्रियाको सहते चला जाय । उपयुक्त असलमें यह है कि आदमीके मरनेपर उसके बारे में कुछ लिखा जाय ।