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________________ कलेवर है, लेखकका हृदय उसकी ओर भूखी निगाहोंसे देखता रह जाता है । कलेवरके भीतरसे तो झाँक हृदय रहा है । वह हृदय अपनी स्वीकृति चाहता है, वह अपनेको पहिचनवाना चाहता है। जो कलेवर लेकर उसीके साथ शल्य क्रिया करते मोर हृदयको छूछा समझ छोड़ देते है, उनको कृतज्ञ दृष्टिसे देख सकनेके लिए वह हृदय तरसता ही रह जाता है । एक लोचने रविबाबूके ' घर और बाहर' का जिक्र किया । मुझे इससे खुशी हुई। दिन हुए मैंने वह पुस्तक पढ़ी थी । तब मेरा लिखना प्रारम्भ न हुआ था । मुझे अब भी उसकी याद है । बेशक जो 'घर और बाहर' में है वही 'सुनीता' में भी है । — वही समस्या है। मनजाने ऐसा नहीं हो गया है, जान-बूझकर ऐसा हुआ है । किन्तु, 'घर और बाहर' की समस्या रविबाबूकी समस्या तभी तो बनी, जब कि वह जगत्की समस्या है । उसे उस रूपमें रविबाबूसे पहले भी लिया 1 गया, उन्होंने भी लिया, और पीछे भी लोग लेंगे। जगकी केन्द्रीय समस्याको व्यक्ति - हृदयकी परिभाषामे रखकर जब भी देखा और सुलझाया जायगा, तब उसका वही रूप रहेगा। समस्या सदा तिखूँट है । जगतमें मूल पक्ष दो है' स्व ' और | ' पर ' । ' स्त्र', यानी 'मैं' । 'मैं', अर्थात् भोक्ता और ज्ञाता । ' पर' अर्थात् भोग्य और ज्ञेय । अपनेको भोक्ता मानकर अपनी भोग्य बुद्धिके परिमाणके अनुसार 'मै ' 'पर' को फिर दो भागो में बाँट डालता हूँ - पहला जो मेरा है, दूसरा जो मेरा नहीं है । इसी । स्थानपर समस्या बन खड़ी होती है। जिसे ' मेरा' माना उसपर मै ५८
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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