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________________ आलोचकके प्रति की सार्थकता उस जीवन-तत्त्वके वाहन होने में है जिसकी सेवामें " योजित हैं । वह जीवन-तत्त्व मनोविज्ञानिक नहीं है । वह व्यवहारसिद्ध नहीं, स्वभावसे घिरा नहीं । वहाँ हमारा ज्ञान-विज्ञान लय होता है, नदियाँ समुद्रमें लय हो जाती है । वही इन सबको फिर पोषण देता है, पर, वह इन सबसे अतीत है, इनकी रक्षाके दायित्व से : परिबद्ध नहीं है, क्योकि, वह तो उनकी आत्मा है। पुस्तक भौतिक विवरण भी इसी भाँति स्वाधीन समझे जावें से सजीव पात्र । पुस्तकका हरिद्वार ( प्रेमचंदकी ' कर्मभूमि' का ) गोलवाला हरिद्वार नहीं है । ह्यूगोका पैरिस फ्रांससे अधिक ह्यूगोका । वह नकरोमें नहीं हो सकेगा, क्योंकि, वह ह्यूगो के मनमें ही होने यक था । किन्तु, नामोंमें क्या है ? पैरिसका वर्णन देनेवाली हर ई पुस्तिका तो अपने लेखकको ह्यूगो नहीं बना दे सकती । इससे, चित है कि, पाठक इनपर अटके नहीं। इस प्रकारकी स्थान - रूपकी माणिकता कोई बहुत अंतिम वस्तु नहीं है । 1 ये ऊपरी बातें है । वैसी त्रुटियाँ तो होती ही है । कहाँ वे नहीं ती खंडित करके देखा गया चित्र धब्बोके अतिरिक्त क्या ? खेगा ? प्रत्येक लेखक अपने लेखमें वर्कमैनशिपकी ऐसी अनेक भूलोंको आलोचकके हाथों स्वयं गिरफ्तार करा दे सकता है । सच छा जाय तो इस दृष्टिसे सब कुछ भूल ही है । ठीक Perspective स न हो तो कौन चित्र असुन्दर नहीं है ? पर, इस प्रकारकी त्रुटियाँ लेखककी चिन्ताका विषय नहीं हैं। आलोचकके लालचका विषय भी उन्हें नहीं होना चाहिए । जिसके लिए मालोच्य विषय ५७
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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