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________________ कुछ पत्रोंके अंश शीशेमें बन्द प्रदर्शनकी वस्तु ही बनकर रहनेवाली क्यों बने, वह क्यों न महाप्राणवान्, सर्वथा अरक्षित, खुली दुनियामें अपने ही बलपर प्रतिष्ठित बनी खडी हो ? मेरी कल्पना है कि अपरके वाक्योंमें आपको अपने प्रश्नके सम्बन्धमें मेरी स्थितिका कुछ आभास प्राप्त होगा।...... ता. २५-९-३५ ....मुझे अपने कथनों में विरोध नहीं दीखता । अन्य विचारकोंके वाक्य जो आपने लिखे हैं, उनके साथ भी मेरी स्थितिका अविरोध बैठ सकता है। हमको मान लेना चाहिए कि जो शब्दों में आता है, सत्य उससे परे रह जाता है । उसकी ओर सकेत कर सकें, यही बस है । वह भला कहीं परिभाषामें बंधनेवाला है ! इससे लोगोके भिन मिन वक्तव्योंका भाव लेना चाहिए । मैं जिसे 'सत्य' शब्दसे बूझता हूँ, उसमें तो सत्ता मात्र समाई है । जगतका झूठ-सच सब उसमें है। 'वास्तव'से मेरा अभिवाय गैकिक सत्यस है जिसको भरनेके लिए सदा ही 'असत्य' की आवश्यकता होती है। जीवनमें तो द्वंद्व है ही, किन्तु लक्ष्य तो निद्वता है । जीवन विकासशील है। क्या कला जीवनसे अनपेक्ष्य ही रह सके ? ऐसी कला तो दंभको पोषण दे सकती है।... ता. २१-११-३५ ......मैं लिखना न छोड़े, हो जो हो, यह आप कहते हैं । आप ठीक हैं। लेकिन मैं अपने लिखनेको वैसा महत्त्व नहीं दे पाता । मैं नहीं लिखता, इससे साहित्यकी क्षति होती है, यह चिन्ता मुझे लगाये भी नहीं लगती । जब मुझमें वह भाव नहीं है, तब उसे ओढ़े क्यों ? मैं उसे अपने ऊपर ओढ़कर बैठना नहीं चाहता । साहित्यिक विशिष्ट व्यक्ति मैं अपनेको एक क्षणके लिए भी नहीं समझना चाहता । ऐसा समझना अनिष्ट है । ऐसी समझ, मैं देख रहा हूँ, बहुत अंशमै आज हिन्दीके साहित्यको हीन बनाये हुए है । मानों जो साहित्यिक है उसे कम आदमी होनेका अधिकार हो जाता है, अथवा कि वह उसी कारण अधिक आदमी है ! इसलिए मैं उस तरहकी बातको अपने भीतर प्रश्रय देना -
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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