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________________ कला मात्र स्वप्न नहीं । वह वास्तवके भीतर रमी हुई वास्तविकता है, जैसे शरीरके भीतर रमी हुई आत्मा । वह अधिक वास्तव है। जिस आदर्श-क्षेत्रको हम कलात्मक चेतनासे स्पर्श करते हैं, जिस स्वर्गकी हम इस प्रकार झॉकी पाते हैं और उसके आह्वादको व्यक्त करते हैं, क्या उस स्वर्गमे अपने इस समग्र शरीर और शारीरिक जीवनके समेत पहुंचे बिना हम तृप्त हो ? तृप्त नहीं हुआ जा सकेगा । इसीसे तमाम जीवनके जोरसे कलाको पाना और वहाँ पहुँचना होगा। Oscar Wilde, को मैंने कुछ पढा है । मैं उसे भटक गया हुआ व्यक्ति समझता हूँ | विचारकी सुलझन उसकी विशेषता नहीं। अपनी रचनाओकी विविधतापर मैं अप्रसन्न नहीं हूँ। न उनमें कोई ऐसा विरोध देखता हूँ । हा, विविधता तो देखता ही हूँ और सबका विविध मूल्य मी ऑकता हूँ। 'एक टाइप' और 'राज-पथिक में स्थान भेद और मूल्य-भेद तो है ही । पर मेरी अपेक्षासे तो दोनेमि एक-सा ही सत्य है ।...... यह स्वीकार करना होगा कि मैं अपनी किन्हीं रचनाओंमे भाव-प्रवण अधिक हूँ, कहीं जीवन-समीक्षक विशेष । किन्तु कहानियोके साथ मैं अपना सम्बन्ध चिन्तापूर्वक स्थिर नहीं करता हूँ और अपनी सभी रचनाओको मैं प्रेम करना चाहता हूँ। _ मैं चाहता हूँ, छोटी और तुच्छ वस्तु मेरे लिए कहीं कुछ रहे ही नहीं । धूलके कनमे भी मै उस परम प्रेमास्पद परम रहस्यको क्यों न देख लेना चाहूँ जिसे 'परमात्मा' कहते हैं । और वह परमात्मा कहाँ नहीं है ? आज कीचड़में ही उसे देखना होगा। यही आस्तिकताकी कसौटी है। मूर्तिमे तो अल्पश्रद्धावान् भी देख पाता है। कलाकार उसी अपरिमेय श्रद्धाका प्रार्थी है और तब कहॉ उसके हाथ Soiled हो सकते हैं। वह तो सब जगह अपूर्व महिमाके दर्शन कर और करा सकता है। यदि मैं खादकी उपयोगिताके सम्बन्धमे कुछ अपना मौलिक उपयोगी अनुभव लोगोको बता सकूँ तो यह मैं साहित्यिक जैनेन्द्र के लिए कलंककी बात नहीं समझंगा, प्रत्युत श्रेयकी बात ही समझूगा । हम क्यों कलाको छुई-मुई-सी वस्तु, hot house product, बनावें । वह २९२
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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