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________________ सत्य, शिव, सुंदर है । और इस तरह भी, वे दोनों एक प्रकारसे परस्पर सहायक होते हैं, क्योंकि दोनों एक दूसरे के लिए अंकुश ( = Check) रखते है । मनुष्य और मनुष्य- समाजके मंगल - पक्षको प्रधानता देनेवाले नीति-नियम जब तब इतने निर्मम हो गये है कि जीवन उनसे संयत होनेके बजाय कुचला जाने लगा है। तब इतिहासके नाना कालोमें, प्रत्युत प्रत्येक कालमे, जीवनके आनंद - पक्षने विद्रोह किया है और वह उभर पड़ा है। इधर जब इस भोगानंद - पक्षकी अतिशयता हो गई है तब फिर आवश्यकता हुई है कि नियम-कानून फिर उभरे और जीवनके उच्छृंखल अपव्ययको रोक कर संयत कर दें। इस कथनको पुष्ट करनेके लिए यहाँ इतिहासमेंसे प्रमाण देनेकी श्रावश्यकता नहीं है। सब देशो, सब कालोका इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वयं व्यक्तिके जीवनमें इस तथ्यको प्रमाणित करनेवाले अनेकानेक घटना-संयोग मिल जायँगे । फिर भी, वे प्रमाण प्रचुर परिमाण में किसीको स्थापत्य - कला, वास्तु कला, साहित्य-संगीत, मठमंदिर, दर्शन -संस्कृति और इधर समाज-नीति और राजनीतिके क्रमिक विकासके त्र्अध्ययनमे जगह जगह प्राप्त होंगे । व्यक्तित्वके निर्माणमें प्रवृत्तिका और निवृत्तिका समान भाग है । जहाँ शिव प्रधान है - वहाँ निवृत्ति प्रमुख हो जाती है । वहाँ वर्तमानको थोड़ा-बहुत क़ीमतमे स्वाहा करके भविष्य बनाया जाता है। जहाँ सुंदर लक्ष्य है वहाॅ प्रवृत्ति मुख्य और निवृत्ति गौरा हो जाती है । वहाँ भविष्यपर बेफिक्रीकी चादर डालकर वर्तमानके रसको छककर लिया जाता है। वहाँ ज्ञान लक्ष्य नहीं है, प्राप्ति भी लक्ष्य नहीं है, मग्नता २५१ •
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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