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मानवकी उपासनामें सगुण, साकार, स्वरूपवान् बनकर शिव और सुंदर हो जाता है।
सत्यकी अपेक्षा शिव और सुंदर साधना-पथ हैं, साध्य नहीं । वे प्रतीक है, प्रतिमा हैं। स्वयं आराध्य नहीं हैं, आराध्यको मूर्तिमान करते है।
शिव और सुंदरकी पूजा यदि अज्ञेय सत्यके प्रति आस्था उदित नही करती, तो वह अपने आपमें अहं-पूजा है। वह पत्थर-पूजा है । वह मूर्तिपूजा सच्ची भी नहीं है।
सच्ची मूर्तिपूजा वह है जहाँ पूजकके निकट मूर्ति तो सच्ची हो ही, पर उस मूर्तिकी सचाई मूर्तिसे अतीत भी हो । ___ इस निगाहसे शिव और सुंदर मंजिलें है, मकसूद नहीं हैं। इष्ट-साधन है, इष्ट नहीं है । इष्ट भी कह लो, क्यों कि इष्ट देवकी राहमें है। पर यदि राहमें नहीं हैं तो वे अनिष्ट है। ___ लेकिन यहाँ हम कहीं गड़बड़में पड़ गये मालूम होते हैं । जो सुंदर है वह क्या कभी अनिष्ट हो सकता है ? और शिव तो शिव है ही । वह अनिष्ट हो जाय तो शिव ही क्या रहा! ___ बात ठीक है। लेकिन शिवका शिवत्व-निर्णय मानव-बुद्धिपर स्थगित है । सुन्दरका सौन्दर्य-निरूपण भी मानव-भावनाके ताबे है । मानव-बुद्धि अनेक रूप है। वह देश-कालमें बंधी है । इसलिए ये दोनो (शिव, सुंदर) अनिष्ट भी होते देखे जाते है । इतिहासमें ऐसा हुआ है । अब भी ऐसा हो रहा है।
सत्य स्वयं-भू है, एक है, उसे आलंबनकी आवश्यकता नहीं है। सब विरोध उसमें लय हो जाता है। उसके भीतर द्वित्वके लिए स्थान नहीं है । वहाँ सब 'न'कार स्वीकार्य है। २४८