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________________ सत्य, शिव, सुंदर कुछ भी और नहीं है। वह निर्गुण है । वह सर्वरूप है, संज्ञा भी है, भाव भी है । सत्का भाव सत्य है। जो है वह सत्यके कारण है, उसके लिए है । इस दृष्टिसे असत्य कुछ है ही नहीं । वह निरी मानव-कल्पना है। असत् , यानी जो नहीं है। जो नहीं है उसके लिए यह 'असत्' शब्द भी अधिक है। इसलिए 'असत्य' शब्दमें निरा मनुष्यका आग्रह ही है, उसमें अर्थ कुछ नहीं है। आदमीने काम चलानेके लिए वह शब्द खड़ा कर लिया है। यह कोरी अयथार्थता है । ___ इसी तरह 'सत्यता' शब्द भी यथार्थ नहीं है । वह शब्द चल पड़ा तो है पर केवल इस बातको सिद्ध करता है कि मानव-भाषा अपूर्ण है। जो है वह सत् । जो उसको धारण कर रहा है वह सत्य । अब 'शिव' और 'सुंदर' शब्दोंकी स्थिति ऐसी नहीं है। शिव गुण है, सुंदर रूप है । ये दोनो सम्पूर्णतया मानवात्माद्वारा ग्राह्य तत्त्व है । ये रूपगुणातीत नहीं है, रूपगुणात्मक है। ये यदि संज्ञा है तो उनके भाव जुदा है,-शिवका शिव-ता और सुंदरका सुंदर-ता। और जब वे स्वयंमें भाव है तब उन्हें किसी अन्य तत्वकी अपेक्षा है-जैसे 'यह शिव है', 'वह सुंदर' है। 'यह' या 'वह' उनके होनेके लिए जरूरी है। उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। ____ ऊपरकी बात शायद कुछ कठिन हो गई। मतलब यह कि सत्य निर्गुण है । शिव और सुंदर उसीका ध्येय रूप है। सत्य ध्येयसे भी परे है । वह अमूर्तीक है। शिव और सुंदर उसका मूर्तीक स्वरूप है। निर्गुण, निराकार, अंतिम सचाईका नाम है सत्य । वही तत्त्व ૨૪૭
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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