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________________ दूर और पास ( घनता ) द्वारा ही वह सम्पूर्णको अपनाएगी । दर्शनकी मर्यादा अगम है, पर प्रीति-भक्तिकी क्षमता उससे भी गहरी जायगी । प्राणोंका उभार ( =Tension ) कल्पनाकी उड़ानसे अधिक सार्थक हो सकेगा । उससे उपलब्धि गम्भीर होगी । कल्पना और भावना ये दोनों ही जीवनकी प्रगतिके मूलमें हैं । दोनों अनिवार्य है, दोनों अमूल्य हैं। पर दोनोंका ख़तरा भी बहुत है । दोनोसे मनुष्य विराट्की ओर बढ़ता है, पर इन्हींसे वह अपना विनाश भी बुला सकता है । भावनासे जब हम परस्परमें ' क्लेश-क्लिष्ट ' दूरी पैदा करते हैं और कल्पनाहीन बुद्धिसे लालसाजनित निकटतामें रमण करते है, तब ये ही दोनों शक्तियाँ हमारी शत्रु हो जाती है और हमारा अनिष्टसाधन करती है। जो मेरे पास है, वह मेरा स्वत्व नहीं है, क्योंकि उसका अपने में अलग स्वत्व भी है। कल्पनाहीन होकर हम प्राणको ऐसे पाते है, मानो उसकी सार्थकता हमारे निकट प्राप्त होने में ही है । यह हमारी भूल है और इससे हमारी अपनी ही प्राप्तिका रस हस्व होता है। यही मानवका मोह और अहंकार है । दूसरी ओर भावनाको हम दुर्भावना बना उठते हैं और उसके सहारे परस्परकी निकटता नहीं बल्कि दूरी बढ़ा लेते है । मन ही एक हो सकता है, तन अनेक हैं । पर मन हम फटने देते है, और तनकी निकटताके कामुक होते है । नतीजा इसका विनाश है । जो दूर है उसे दूर, जो पास है उसे पास जानना होगा । फिर भी जानना होगा कि दूर है वह भी पास है और जो पास मालूम होता है, उसे भी दूर रखनेकी आवश्यकता हो सकती है । तन १४ २०९
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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