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________________ रुक कर कि पानी हमारे पीनेके लिए बना है, हम उसकी भीतरी सचाईको ( उसकी आत्माको ) पानेसे अपनेको वंचित ही करते है। स्पष्ट है कि पानीको H,0 रूपमें देखने और दिखानेवाला व्यक्ति पीनेके वक्त उस पानीको पीता भी होगा। पर कहनेका मतलब यह है कि उस पदाथके साथ उस आविष्कर्ताका सम्बन्ध मात्र प्रयोजनका नहीं था, कुछ ऊँचे स्तरपर था। प्रयोजनका माप हमारा अपना है । हम सीमित है, बहुत सीमित हैं, परंतु विश्व वैसा और उतना सीमित नहीं है । इसलिए, विश्वको अपने प्रयोजनों के मापसे मापना आस्मानको अपने हाथकी बिलादसे नापने जैसा है। पर सच यह है कि हम करें भी क्या ? नापनेका माप हमारे पास अपनी बिलाँद ही है । तिसपर नापनेकी तबीयतसे भी हमारा छुटकारा नहीं है । नाप-जोख किये बिना हमारे मनको चैन नहीं । नाप नाप कर ही हम बढ़ेगे । एकाएक मापहीन अकूल अनंतमें , पहुँच भी जाये तो वहाँ टिकेंगे कैसे ? बेशक यह ठीक है । नाप नाप कर बढ़ना ही एक उपाय है। हमारे पास लोटा है तो लोटे-भर पानी कुएँसे खींच ले और अपना काम चलावें । ध्यान तो बस इतना रखना है कि न आस्मान बिलाँद जितना है, न कुएंका पानी लोटा-भर है। -बिलाँदमे आस्मानको म पकड़ें, न लोटेमें कुएको समेटें! प्रयोजन होना गलत नहीं है। दुनिया प्रयोजन नहीं रखेंगे तो शायद हमें रोटी मिलनेकी नौबत न आयगी । पर प्रयोजनके १८२
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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