SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ on आँखोंसे और स्थूल वुद्धिसे यह बात इतनी सहज सत्य मालूम होती है कि जैसे अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता । अगर कुछ प्रत्यक्ष सत्य है तो यह ही है। पर आज हम जानते हैं कि यह वात यथार्थ नहीं है । जो यथार्थ है उसे हम तभी पा सकते हैं जब अपनेको विश्वके केंद्र माननेसे हम ऊँचे उठे ।-अपनेको मानकर भी किसी भाँति अपनेको न मानना आरंभ करें। सृष्टि हमारे निमित्त है, यह धारणा अप्राकृतिक नहीं है। पर उस धारणापर अटक कर कल्पनाहीन प्राणी ही रह सकता है । मानव अन्य प्राणियोंकी भॉति कल्पनाशून्य प्राणी नहीं है। मानवको तो यह जानना ही होगा कि सृष्टिका हेतु हममें निहित नहीं है। हम स्वयं सृष्टिका भाग हैं । हम नहीं थे, पर सृष्टि थी। हम नहीं रहेंगे, पर सृष्टि रहेगी। सृष्टिके साथ और सृष्टिके पदार्थोके साथ हमारा सच्चा संबंध क्या है ? क्या हो? मेरी प्रतीति है कि प्रयोजन और 'युटिलिटी' शब्दसे जिस संबंधका बोध होता है वह सच्चा नहीं है। वह काम-चलाऊ भर है। वह परिमित है, कृत्रिम है और बंधनकारक है। उससे कोई किसीको पा नहीं सकता। सच्चा संबंध प्रेमका, भ्रातृत्वका और आनन्दका है । इसी संबंधों पूर्णता है, उपलब्धि है और श्राह्लाद है; न यहाँ किसीको किसीकी अपेक्षा है, न उपेक्षा है । यह प्रसन्न, उदात्त, समभावका संबंध है। पानी हमारे पीनेके लिए वना है, हवा जीनेके लिए, आदि. १८०
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy