________________ 45 परिशिष्ट * अव्यवस्थितमर्यादैर्मूढैर्नास्तिकैनौः / संशयात्मभिरव्यक्तै हिंसा समनुवर्णिता // 6 // + सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् / कामकाराद्विहिंसन्ति बहिवैद्यां पशूनराः // 7 // तस्मात् प्रमाणतः कार्यों धर्मः सूक्ष्मो विजानना / अहिंसा एव सर्वेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता // 8 // शां० प० अ० 271] इन श्लोकों का भावार्थ यह है कि मर्यादा रहित, मूढ़ और नास्तिक पुरुषों ने तथा जिन को आत्मा के विषय में संशय है और यज्ञादि अनुष्ठान से प्रसिद्धि की इच्छा रखते हैं, उन्होंने ही यक्षों में पशुओं की हिंसा को श्रेष्ठ कहा अथवा माना है / जिस प्रकार अन्यत्र, लोग अपनी इच्छा से पशुओं का वध करते हैं, उसी प्रकार ज्योतिष्टोमादि यज्ञों में भी * नास्तिकैः-नास्ति ब्रह्मेति वदभिः संशयात्मभिः-आत्मा देहोऽन्यो वा, अव्यक्तै-यज्ञादिद्वारैव ख्यातिमिच्छद्भिः, हिंमा-तौ पश्वालंभः श्रेष्टः कृतः // 6 // __ + वहिर्वेद्यामिव ज्योतिष्टोमादिष्वपि नराः कामकारादेव पशून हिंसंति न तु शास्त्रात् यतो धमर्मात्मा मनुः सर्ववेदार्थतत्त्ववित् अहिंसामेवाब्रवीत्-प्रशशंस [टोकाया नीलकण्ठाचार्यः]