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________________ जैनतत्त्वावर्ग नाकस्य पृष्ठे ते मुकृतेऽनुभूत्वे-- मं लोकं हीनतरं वा विशंति // 10 // [मुंडकोपनिषद् मु० 1 ख 2]. तात्पर्य कि यह यज्ञरूप प्लव-क्षुद्र बेडिये अदृढ़ हैं, टूट जाने वाली हैं, अर्थात् संसार समुद्र से पार करने में सर्वथा असमर्थ हैं, जो मूर्ख इन वैध यशों को श्रेष्ठ मान कर इन का अभिनन्दन करते हैं, वे फिर भी जन्म मरण को ही प्राप्त होते हैं // 7 // ___ जो लोग यागादि वैदिक कर्म और कूप तड़ागादि स्मात कर्म को परमोत्तम मानते हैं, वे मूर्ख हैं, क्योंकि उन को यह मालूम नहीं कि इस से अतिरिक्त मोक्ष का साधक कोई और भी श्रेष्ठ मार्ग विद्यमान है / इस लिये वे स्वर्ग में पुण्य का फल भोग कर इस लोक में मनुष्य पशु और नरकादि गति को प्राप्त होते हैं / उपनिषद् के इन वाक्यों से वैध यज्ञों के प्रति जो तिरस्कार प्रकट होता है, उस पर किसी प्रकार से विशेष विवेचन की आवश्यकता नहीं / इस के अतिरिक्त मुंडकोपनिपद के इन दो मन्त्रों के बीच के आठवें मन्त्र में इसी कर्म को गर्हित बतलाते हुए उस के अनुष्ठान करने वालों को पंडितमानी, महामूर्ख और "अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः" के शब्दों से स्मरण किया है। २-(क) महाभारत में राजा विचख्यु के इतिहास में लिखा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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