________________ जैनतत्त्वादर्श 6. अनिर्वचनीयख्याति-यह मत वेदान्तियों का है इस की प्रक्रिया इस प्रकार है अन्तःकरण की वृत्ति नेत्र के द्वारा बाहिर निकल कर विषय के आकार को धारण करती है, विषयाकार होने से विषय में रहे हुए आवरण का भंग हो जाने से उस का प्रकाश हो जाता है / तात्पर्य कि वृत्ति द्वारा विपयावच्छिन्न चेतन में रही हुई अविद्या का भंग होने से वह प्रकाशित हो जाता है, तव पदार्थ का भान होने लगता है / परन्तु इस में प्रकाश की सहायता की भी आवश्यकता रहती है, विना प्रकाश के पदार्थ की प्रतीति नहीं होती। शुक्ति रजत अथवा रज्जु सर्प श्रादि भ्रम स्थल में शुक्ति या रज्जु के साथ नेत्र द्वारा अन्तःकरण की वृत्ति का सम्बन्ध हो कर वह शुक्ति रूप अथवा रज्जु रूप को धारण तो करती है, परन्तु प्रकाश के न होने से वह विषयगत अविद्या का भंग नहीं कर सकती / प्रत्युत विषयावच्छिन्न चेतननिष्ठ उस अविद्या में क्षोभ पैदा कर देती है, तब वही क्षुब्ध हुई अविद्या शुक्ति स्थल में चांदी और रज्जु स्थल में सर्प के आकार को धारण कर लेती है / तथा अविद्याजन्य इस रजत और सर्प को न तो सत् कह सकते हैं क्योंकि अधिष्ठान रूप शुक्ति और रज्जु के स्पष्ट ज्ञान से उस का याध हो जाता है; और असत् इस लिये नहीं कह सकते कि उस की प्रतीति होती है, अतः सत् असत् उभय विलक्षण होने से यह अनिर्वचनीय है / तब