________________ 41 परिशिष्ट में बुद्धि से अतिरिक्त रजत कोई नहीं, किन्तु वुद्धि ही सर्व पदार्थ के आकार को धारण करती है। और वह बुद्धि क्षणिक विज्ञान स्वरूप है, जो कि क्षण क्षण में उत्पन्न और विनष्ट होता है, इस लिये क्षणिक विज्ञान ही सर्व रूप से सर्वत्र प्रतीत होता है, इसी का नाम आत्मख्याति है, आत्माक्षणिक विज्ञानरूप बुद्धि, उस की सर्वरूप से ख्याति-भान अथवा कथन, आत्मख्याति है। 4. अन्यथाख्याति-यह नैयायिकों और वैशेषिकों का मत है / उन के सिद्धान्त में सराफ की दुकान पर देखी गई सत्य रजत का नेत्रगत दोष के प्रभाव से शुक्ति के स्थान में प्रतीति होना अर्थात् दुकान पर पड़ी हुई चांदी का, अन्यथा-सन्मुख में भान होना, इस का नाम अन्यथाख्याति है / और चिन्तामणिकार का कथन है कि दुकान पर पड़ी हुई चांदी का सन्मुख में भान नहीं होता, किन्तु नेत्रगत दोष से शुक्ति का ही अन्यथा-अन्यप्रकार से-रजत के आकार से प्रतीत होना अन्यथाख्याति है।। 5. अख्याति-इस मत का समर्थक सांख्य और प्रभाकर को माना गया है। इन के विचार से शुक्ति में जहां रजत का भ्रम होता है, वहां पर दो शान हैं-एक प्रत्यक्ष, दूसरा स्मृति रूप / शुक्ति का ज्ञान तो प्रत्यक्ष है और रजत की स्मृति होती है, परन्तु नेत्र के दोष से वह भिन्न र ज्ञान एक हो कर भालता है, इसी का नाम अख्याति अथवा भ्रम है।