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________________ परिशिष्ट - वैयाकरणों को यही नय मान्य है। ____1. समभिरूढ़-पर्यायवाचक शब्दों के भेद से वाच्यार्थ में भी भेद कल्पना करने की पद्धति को समभिरूढ़ कहते हैं / इस नय के मत में घट शब्द के वाच्यार्थ घटरूप पदार्थ से कुम्भ शब्द के वाच्यरूप कुंभ पदार्थ में भेद है, अतः घट, कुम्भ और कलश में जहां शब्द नय के अनुसार अभेद है, वहां समभिरूढ़ नय के मत में भिन्नता है, क्योंकि इन में व्युत्पत्ति के द्वारा जो अर्थ ध्वनित होता है, वह इन के सहज भेद' का नियामक है / वैयाकरणों ने इसी नय का अनुसरण किया है / 7. एवंभूत-व्युत्पत्ति द्वारा उपलब्ध होने वाला अर्थ जिस समय वाच्य पदार्थ में घट रहा हो, उसी समय उस का शब्द के द्वारा निर्देश करना एवंभूत नय है। जैसे घट को उसी समय पर घट कहना चाहिये, जब कि उस में जल भरा हो, और किसी व्यक्ति द्वारा मस्तक पर उठाया हुआ घट घट शब्द करे / यह नय केवल विशुद्ध भाव को लेकर प्रवृत्त होता है। परिशिष्ट नं०२-क [प० 103] - ख्यातिवाद . जहां पर रज्जु में सर्प और शुक्ति में रजत-चांदी का भ्रम होता है; वहां र दार्शनिकों के भिन्न 2 मत हैं, जो कि
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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