________________ जैनतत्त्वादशे का अभिप्राय यह है, कि जैन सिद्वांत में वैशेषिक दर्शन की भांति सामान्य और विशेष स्वतन्त्र पदार्थ नहीं माने, किन्तु इन को वस्तु के धर्म मान कर वस्तु को ही सामान्यविशेषात्मक स्वीकार किया है / इस प्रकार वस्तु में सामान्य और विशेष धर्म की प्रतीति होने से यह सिद्ध हुआ कि. सामान्य के विना विशेष और विशेष के विना सामान्य नहीं रहता। किन्तु सामान्य और विशेष दोनों ही एक दूसरे के आश्रित हैं, और दोनों ही वस्तु मात्र में विद्यमान हैं। 1. नैगमनय-वस्तु में रहे हुए सामान्य और विशेष इन दोनों धर्मों को समानरूप से मान्य रखने वाली ष्टि का नाम नैगमनय है। इस के मत में विशेष रहित सामान्य और सामान्य रहित विशेष की स्वतन्त्र सत्ता नहीं, किंतु वस्तुमात्र ही सामान्य विशेष उभयधर्म वाली है। तात्पर्य कि जिस प्रकार द्रव्य सामान्य और विशेष धर्मवाला है उसी प्रकार पर्याय भी सामान्य विशेष धर्मयुक्त है। / समस्त घटों में ऐक्य बुद्धि का उत्पादक घटत्वरूप सामान्य धर्म है, और प्रत्येक घट में रक्त पीतता आदि विशेष गुण उन की-घटों की विभिन्नता के नियामक हैं, इस लिये नैगमनय के मत से संसार की सभी वस्तुएं सामान्य और विशेष धर्म वाली मानी गई हैं / न्याय और वैशेशिपफ दर्शन ने इसी नय का अनुसरण किया है।