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________________ जैनतत्त्वादर्श जा सकता / अतः वस्तु में रहे हुए इन.,विविध धर्मों में से किसी एक धर्म को लेकर अन्य धर्मों का अपलाप न करके वस्तु के स्वरूप का जो आंशिक निर्वचन है, उस को नय कहते हैं, इस को सदृष्टि अथवा अपेक्षा भी कहते हैं। यद्यपि वस्तु में अनन्त धर्मों की विद्यमानता होने से उन के द्वारा वस्तु का निर्वचन करने वाली दृष्टिये भी अनन्त हैं,नथापि वर्गीकरण द्वारा शास्त्रकारों ने उन सब दृष्टियों का द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों में अन्तर्भाव करके पहिले के तीन और दूसरे के चार भेद करके सम्पूर्ण विचारों को सात भागों में विभक्त कर दिया है / ऊपर कहा गया है कि सम्पूर्ण विचारों, दृष्टियों, अपेक्षाओं और नयों का समावेश मुख्यतया द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन, दो नयों में किया गया है / उन में द्रव्य अर्थात् मूल वस्तु-पदार्थ विषयक जो विचार सो द्रव्यार्थिकनय और पर्याय अर्थात् पदार्थ की विकृति का निर्वचन करने वाली दृष्टि को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। . उदाहरण-स्वर्ण द्रव्य और कटक कुण्डलादि पर्याय हैं। अतः केवल स्वर्ण द्रव्य का विचार करने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक नय और स्वर्ण की विकृति रूप कटक कुण्डलादि का निर्वचन करने वाली दृष्टि को पर्यायार्थिक नय कहते हैं / इन में प्रथम द्रव्यार्थिक नय के नैगम, संग्रह, व्यवहार, यह तीन भेद हैं। दूसरे पर्यायार्थिक नय के जुसूत्र, शब्द,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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