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________________ परिशिष्ट 222 परिशिष्ट नं. १-घ [पृ. 82] नयवाद प्रमाणनयैरधिगमः / [ तत्त्वा० 1-6] जैनधर्म के सुप्रसिद्ध तार्किकशिरोमणि आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि *"जितने भी बोलने के मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय अर्थात् अन्य सिद्धांत हैं" / वस्तु तत्त्व का विवेचन केवल एक ही दृष्टि से नहीं हो सकता, क्योंकि एक ही दृष्टि से किया गया पदार्थ का विवेचन अधूरा होता है / जो विचार एक दृष्टि से सत्य प्रतीत होता है, उस का विरोधी विचार भी दूसरी दृष्टि से सत्य ठहरता है, इस लिये विविध दृष्टियों से ही पदार्थ के स्वरूप को पर्यालोचन करना सिद्धांत की दृष्टि से सम्पूर्ण एवं सत्य ठहरता है, इसी का नाम प्रमाण है। __वस्तुमें सत्त्व, असत्त्व नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्वादि अनेकविध विरोधी धर्मों का अस्तित्व प्रमाणसिद्ध है। इन सम्पूर्ण धर्मों का एक ही समय में निर्वचन नहीं किया www * जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया / जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥[सं० त० 3-47 ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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