________________ 'परिशिष्ट गर्भित मानते थे / इसलिये जिनप्रवचन की भाषा के अर्धमागधी. और प्राकृत ये दोनों ही नाम शिष्टजन को सम्मत हैं। , . . -परिशिष्ट नं०१-ख - [पृ०८,८] - - ' तीर्थकर और जीवन मुक्त जैन सिद्धान्त के अनुसार जिस समय तीर्थंकर भगवान् को कर्मजन्य समस्त आवरणों के सर्वथा दूर हो जाने से केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, उस समय उन को संसार के सारे पदार्थों का करामलकवत् पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष भान होने लगता है / तथा उन में कई एक अतिशय उत्पन्न हो जाते हैं, जिन के प्रभाव से ऋद्धिसम्पन्न अनेक देवता हर समय उन की सेवा में उपस्थित रहते हैं। " वैदिक वाङ्मय में भी इस प्रकार का उल्लेख मिलता हैं। जीवन मुक्त के ज्ञान और ऐश्वर्य के वर्णन में उपनिषदों के निम्न लिखित कतिपय वाक्य उक्त सिद्धान्त की पुष्टि के लिये पर्याप्त प्रतीत होते हैं। जिस आत्मा को ब्रह्म अथवा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, ऐसे वीतराग आत्मा की अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया है-..