________________ परिशिष्ट लक्षणों की स्वल्पता पाई जावे, वह अर्धमागधी भाषा है। . श्री अभयदेव सूरि आदि प्राचार्यों की इस पारिभाषिक व्याख्या के अनुसार तो जैन आगमों को भाषा को अर्धमागधी कहने अथवा स्वीकार करने में कोई भी आपत्ति नहीं, क्योंकि उन में इसी नियम की व्यापकता उपलब्ध होती है / अर्थात् जैनगामों की भाषा में प्राकृत के नियमों का अधिक अनुसरण किया हुआ है, और मागवी का कहीं कहीं। परन्तु यदि उक्त व्याख्या को पारिभाषिक न मान कर यौगिक माने, तब तो उक्त जैन प्रवचन की भाषा को प्राकृत या पार्षप्राकृत कहना अधिक युक्तियुक्त होगा / हमारी दृष्टि में तो जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी और प्राकृत दोनों ही नामों से अभिहित की जा सकती है। पूर्वाचार्यों ने इसे प्राकृत के नाम से भी उल्लेख किया है / जैसे कि आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने दशवैकालिक सूत्र की वृत्ति में लिखा है प्राकृतनिवन्धोऽपि बालादिसाधारणः। . उक्तं चवालस्त्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् / अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः सिद्धांतः प्राकृतः कृतः॥ इस लेख के द्वारा आगमों की भाषा को प्राकृत स्वीकार किया है / तथा स्वर्गीय आचार्य श्री विजयानंद सूरि जी ने