________________ ___षष्ठ परिच्छेद 563 जन्म लेता है, फिर पूर्ववत् सुख भोग करता है, इसी तरें अनादि अनंतकाल लगि करता रहेगा / परन्तु एक जगे स्थित न रहेगा। इस प्रकार भिन्न 2 मोक्ष कहते हैं / परन्तु सर्वज्ञ अहंत परमेश्वर ने तो सतरूप-ज्ञानदर्शनरूप, तथा असारभूत जो यह संसार है, तिस से भिन्न सारभूत, निस्सीम आत्यंतिक सुखरूप, अनंत, अतींद्रियानंद अनुभवस्थान, अप्रतिपाती, स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष कही है। प्रश्न- हे जैन ! तुम ने सर्व वादियों की कही हुई मोक्ष को तो अनुपादेय समझा, अरु अर्हत की कही हुई मोक्ष उपादेय समझी। इन में क्या हेतु है ? __ उत्तरः-हे भव्य ! इन सर्व वादियों की मोक्ष पीछे षड्दर्शन के निरूपण में लिख आये हैं, सो जान लेनी। इन वादियों की कही मोक्ष ठीक नहीं, कारण कि जब अत्यंताऽभावरूप मोक्ष होवे, तव तो आत्मा ही का अभाव हो गया, तो फिर मोन, फल किसको होवेगा? ऐसा कौन है जो आत्मा के अत्यंताभाव होने में यत्न करे ? तथा जो शानाभाव को मोक्ष मानते हैं, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि जब ज्ञान ही न रहा, तव तो पाषाणं भी मोक्षरूप हो गया। तो ऐसा कौन प्रेक्षावान है, जो अपनी आत्मा को जड पाषाण तुल्य बनाना चाहे ? तथा जो सर्व व्यापी आत्मा को मोक्ष मानते हैं, अर्थात् जब आत्मा की मोक्ष होती है, तब आत्मा सर्व व्यापी मोच रूप होती है, यह भी कहना प्रमाणानभिज्ञ पुरुषों का