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________________ 560 जनतत्त्वादर्श है / फिर वो शिला कैसी है ? सुरभि-कर्पूर से भी अधिक सुगंधि वाली है, अरु कोमल-सूक्ष्म हैं अवयव जिस के / फिर वो शिला कैसी है ? पुण्या-पवित्र / परमभासुरा-प्रकृष्ट तेजवाली है / मनुष्यक्षेत्र प्रमाण लंबी चौडी है / श्वेत छत्र के समान है-उत्तान छत्राकार है / उस का वड़ा शुभ रूप है / वो ईषत् प्राग्भारनामा पृथ्वी, सर्वार्थसिद्ध विमान से वारह योजन ऊपर है / अरु वो पृथ्वी मध्य भाग में आठ योजन की मोटी है, तथा प्रांत में घटती घटती मक्खी के पंख से भी पतली है। तिस शिला के ऊपर एक योजन लोकांत है, उस योजन का जो चौथा कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना है / सो वह दो हजार धनुष प्रमाण कोस के छठे भाग में तीन सौ तेत्तीस धनुष अरु बत्तीस अंगुल होता है / उतनी सिद्धों के आत्मप्रदेशों की अवगाहना है। _____ अथ सिद्धों के आत्मप्रदेशों की अवगाहना का आकार लिखते हैं। जैसे मूषा-गुठाली में मोम भर के गाले, तिस के गलने से जो आकार है, तैसा सिद्धों का आकार है। __ अथ सिद्धों के ज्ञान दर्शन का विषय लिखते हैं / त्रैलोक्योदरवर्ती चौदह रज्ज्वात्मक लोक में जो गुणपर्याय करके युक्त वस्तु है, तिन जीवाजीव पदार्थों को सिद्ध-मुक्त आत्मा स्पष्ट रूप से देखते और जानते हैं, अर्थात् सामान्य रूप करके देखते हैं, विशेयरूप करके जानते हैं / क्योंकि वस्तु जो है, सो
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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