________________ षष्ठ परिच्छेद रूप लेप की संगति से रहित धर्मास्तिकायरूप जल करके आत्मा की ऊर्ध्वगति होती है / 3. जैसे एरंड का फल, वीजादि बंधनों से छुटा हुआ ऊर्ध्वगति वाला होता है, तैसे ही कर्म बंध के विच्छेद होने से सिद्ध की भी ऊर्ध्वगति हाती है / 4. जैसे अग्नि का ऊर्ध्व ज्वलन स्वभाव है, तैसे ही आत्मा का भी ऊर्ध्वगमन स्वभाव है। ____ अथ कर्म रहित की नीची अरु तिरछी गति नही होती, यह बात कहते हैं / सिद्ध की आत्मा कर्मगौरव के अभाव से नीचे को नहीं जाती, तथा प्रेरक कर्म के अभाव से आत्मा तिरछी भी नहीं जाती है / तथा कर्म रहित सिद्ध लोक के ऊपर भी, धर्मास्तिकाय के न होने से नहीं जाता / क्योंकि लोक में भी जीव, पुद्गल के चलने में धर्मास्तिकाय गति का हेतु है, मत्स्यादि को जैसे जल है / सो धर्मास्तिकाय अलोक में नहीं, इस वास्ते अलोक में सिद्ध नहीं जाते। अथ सिद्धों की स्थिति अर्थात् सिद्धशिला से ऊपर लोक के अंत में जैसे सिद्ध रहते हैं / सो सिद्धशिला कहते हैं / ईषत् प्राग्भारनामा भूमि-सिद्ध शिला चौदह रज्जुलोक के मस्तक के ऊपर व्यवस्थित है / उस को सिद्धों के निकट होने करके सिद्ध शिला कहते हैं। परन्तु सिद्ध कुछ उस शिला के ऊपर बैठे हुए नहीं हैं . / सिद्ध तो उस शिला से ऊंचे लोकांत में विराजमान हैं। वो शिला कैसी है. ? मनोज्ञा-मनोहारिणी