________________ 558 जैनतत्त्वादर्श . जीव अवन्धक है / तथा एकतर वेदनीय, आदेय, यश, सुभंग, वसत्रिक, पंचेंद्रियत्व, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, उच्चगोत्र, तीर्थकरनाम, इन तेरां प्रकृति को वेदता है / अन्त के दो समय से पहिले पचासी की सत्ता रहती है, उपांत्य समय में तेरह प्रकृति की सत्ता रहता है, अरु अंत समय में सत्ता रहित होता है। आशंकाः-निष्कर्म-कर्म रहितं आत्मा तिस समय में लोकांत में कैसे जाता है ? समाधानः-सिंद्व-कर्म रहित की ऊर्ध्वगति होती है, 'कस्मात'-किस हेतु से होती है ? पूर्व मुक्त आत्मा प्रयोग से-अचिंत्य आत्मवीर्य करके उपांत्य की गति दो समय में पचासी कर्मप्रकृति के क्षय करने के वास्ते पूर्व में जो व्यापार प्रारम्भ किया था, तिस से ऊर्ध्वगति होती है, यह प्रथम हेतु है। तथा कर्म की संगति रहित होने से ऊर्ध्वगति होती है, यह दूसरा हेतु है / तया गाढतर बंधनों करके रहित होने से ऊर्ध्वगति होती है, यह तीसरा हेतु है / तया कर्म रहित जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, यह चौथा हेतु है / यह चार हेतु चारों दृष्टांतों सहित कहते हैं / 1. जैसे कुम्भकार का चक्र पूर्व प्रयोग से फिरता है, तैसे आत्मा की भी पूर्वप्रयोग से ऊर्ध्वगति होती है / 2. जैसे माटी के लेप से रहित होने से तूंवे की जल में ऊर्ध्वगति होती है, तैसे ही अष्टकर्म