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________________ षष्ठ परिच्छेद ध्याता है, तिस से अन्य जो कुछ उपचाररूप अष्टांग योग प्रवृत्ति लक्षण, सो सर्व ही व्यवहार नय के मत से जानना / ___ अथ अयोगिगुणस्थानवर्ती के उपांत्य समय का कृत्य कहते हैं / केवल चिद्रपमय आत्मस्वरूप का धारक योगी अयोगिगुणस्थानवी ही स्फुट-प्रगट उपांत्य समय में शीघ्र युगपत-समकाल बहत्तर कर्म प्रकृति का क्षय करता है। सो यह हैं-देह पांच अर्थात् शरीर पांच, बंधन पांच, संधात पांच, अंगोपांग तीन, संस्थान छः वर्णपंचक, रसपंचक, संहननषट्क, अस्थिरषट्क, स्पर्शाष्टक, गंध दो, नीचगोत्र, अगुरुलघुचतुष्क, देवगति, देवानुपूर्वी, खगतिद्विक, प्रत्येकत्रिक, सुस्वर, अपर्याप्तनाम, निर्माणनाम, दोनों में से कोई भी एक वेदनीय, यह सर्व बहत्तर कर्म प्रकृति मुक्तिपुरी के द्वार में अर्गलभूत हैं, सो केवली भगवान् इन का उपांत्य समय-द्विचरम समय में क्षय करता है। ___ अथ अयोगी अन्त समय में जौनसी कर्मप्रकृति का क्षय करके जो कुछ करता है, सो कहते हैं / सो अयोगी अन्त समय में एकतर वेदनीय, आदेयत्व, पर्याप्तत्व, सत्व, वादरत्व, मनुष्यायु, यशनाम, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, सौभाग्य, उच्चगोत्र, पचेंद्रियत्व, तीर्थकरनाम, इन तेरां कर्म प्रकृति का क्षय करके उसी समय में सिद्ध पर्याय को प्राप्त होता है / सो सिद्ध परमेष्टी, सनातन भगवान् शाश्वत लोकांत के पर्यंत को जाता है / तथा अयोगिगुणस्थानस्थ
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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