________________ 556 जैनतत्त्वादर्श "समुच्छिन्ना"-सर्वथा निवृत्त हुई है, सो समुच्छिन्नक्रिय नाम "चतुर्थ"-चौथा ध्यान कहा है / कैसा वो ध्यान है ? कि मुक्ति महल के द्वार-दरवाजे के समान है। ___ अथ शिष्य के करे दो प्रश्न कहते हैं / शिष्य पूछता है कि हे प्रभु ! देह के होते हुए अयोगी क्योंकर हो सकता है ? यह प्रथम प्रश्न / तथा जेकर सर्वथा काययोग का अभाव हो गया है, तब देह के अभाव से ध्यान क्योंकर घटेगा ? यह दूसरा प्रश्न है। ___ अथ आचार्य इन दोनों प्रश्नों का उत्तर देते हैं। आचार्य कहते हैं, कि भो शिष्य ! अत्र-अयोगी गुणस्थान में सूक्ष्मकाययोग के होते भी अयोगी कहते हैं / किस वास्ते ? कि 1. काययोग के अति सूक्ष्म होने से सूक्ष्म क्रिया रूप होने से, अरु वो काययोग शीघ्र ही क्षय होने वाला है / तथा काय के कार्य करने में असमर्थ होने से, काय के होते भी अयोगी है। तथा शरीराश्रय होने से ध्यान भी है। इस वास्ते विरोध नहीं / किस के ? अयोगी गुणस्थानवर्ती परमेष्ठी भगवान् के / कैसे परमेष्ठी भगवत् के ? कि जो निज शुद्धात्माचगपतन्मयपने से उत्पन्न, निर्भर परमानन्द में विराजमान है। ____ अथ ध्यान का निश्चय और व्यवहारपना कहते हैं। तत्त्व से-निश्चय नय के मत से आत्मा ही ध्याता, अर्थात् आत्मा ही करण रूप से कर्मरूपतापन्न आत्मा को