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________________ षष्ठ परिच्छेद 555 शरीर के अंगोपांग में जो नासिकादि छिद्र हैं, तिन को पूर्ण करता है। तब स्वात्मप्रदेशों का घनरूप हो जाता है। तिस वास्ते स्वप्रदेशों का घनरूप होने से तीसरा भाग न्यून होता है / सयोगिगुणस्थानस्थ जीव, एकविध बंधक उपांत्य समय तक अरु ज्ञानांतराय, दर्शन चतुष्कोदय का व्यवच्छेद होने से बैतालीस प्रकृति को वेदता है। तथा निद्रा, प्रचला, ज्ञानांतरायदशक, दर्शनचतुष्क रूप सोलां प्रकृतियों की सत्ता का व्यवच्छेद होने से तहां पचासी प्रकृति की सत्ता है / * अथ अयोगी गुणस्थान की स्थिति कहते हैं / तेरहवें गुणस्थान के अनन्तर चौदहवे अयोगी गुणअयोगिकेवली स्थान में रहते हुए जिनेंद्र की लघु पंचागुणस्थान क्षर उच्चारणमात्र अर्थात् “अ इ उ ऋ ल" इन पांच वर्णों के उच्चारण करते जितना काल लगता है, तितनी स्थिति है / इस अयोगी गुणस्थान में ध्यान का संभव कहते हैं / इहां अनिवृत्ति नामक चौथा ध्यान होता है / चौथे ध्यान का स्वरूप कहते हैं। समुच्छिन्ना क्रिया यत्र सूक्ष्मयोगात्मिकाऽपि हि / समुच्छिन्नक्रियं प्रोक्तं तद् द्वारं मुक्तिवेश्मनः // [गुण० क्रमा० श्लो० 106 ] अर्थ:-जिस ध्यान में सूक्ष्म काययोग रूप क्रिया भी
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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