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________________ 55 जैनतत्त्वादर्श सूक्ष्म क्रिया चिठ्ठप को स्वयमेव अपने स्वरूप का अनुभव करता है-जानता है। ___ अथ जो सूक्ष्म क्रिया वाले शरीर की स्थिति है, सोई केवलियों का ध्यान होता है / अब यह बात कहते हैं / जिस प्रकार से छद्मस्य योगियों के मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं. तेने ही शरीर की निश्चलता को केवलियों का ध्यान होता है। ___ अथ शैलेशीकरण का आरम्भ करने वाला सूक्ष्म काययोगी जो कुछ करता है. सो कहते हैं। केवली के हस्ताक्षर पांच के उच्चारण करने मात्र काल जितना आयु शेष रहता है. नब शैलबत् निश्चलकाय को चतुर्थध्यानपरिणनिरूप शैलेशीकरण होता है / तिस पीछे सो केवली शैलेशीकरणारम्भी सूक्ष्मरूप काययोग में रहना हुआ शीघ्र ही अयोगी गुणस्थान में जाने की इच्छा करता है। ___ अथ सो भगवान केवली सयोगिगुणस्थान के अंत्य समय में औदारिकद्धिक. अस्थिरद्धिक, विहायोगतिधिक. प्रत्येकत्रिक, संस्थानघटक. अगुरुलघुचनुष्क. वर्णादिचतुष्क. निर्माण. तेजस, कार्मण. प्रथम संहनन, स्वरद्विक, एकनर वेदनीय. इन तील प्रकृति के उदय का विच्छेद होता है / यहां पर अंगोपांग के उदय का व्यच्छेद होने से अंत्यांग संस्थानावगाहना से तीसरा भाग कम अवगाहना करता है। किस कारण से ? अपने प्रदेशों को धनस्य करने से चरम
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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