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________________ 553 षष्ठ परिच्छेद * छम्मासाऊ सेसे, उप्पन्नं जेसि केवलं नाणं / ते नियमा समुग्धाया, सेसा समुग्धाय भइयव्वा // [गुण क्रमा० श्लो० 64 की वृत्ति] अथ समुद्घात से निवृत्त हो करके जो कुछ करता है, सो कहते हैं। मन, वचन अरु काय योगवान् केवली केवल समुद्घात से निवृत्त हो कर योगनिरोधन के वास्ते शुक्लध्यान का तीसरा पाद ध्याता है / सोई तीसरा शुक्लध्यान कहते हैं / तिस अवसर में तिस केवली को तीसरा सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिक नाम शुक्लध्यान होता है / सो कंपनरूप जो क्रिया है, तिस को सूक्ष्म करता है / __अथ मन, वचन, काया के योगों को जैसे सूक्ष्म करता है, सो कहते हैं / सो केवली सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामक तीसरे शुक्लध्यान का ध्याता, अचिन्त्य आत्मवीर्य की शक्ति कर के वादरकाययोग में स्वभाव से स्थिति करके बादर वचन योग और चादर मनोयोग को सूक्ष्म करता है, तिस के अनन्तर बादरकाय योग को सूक्ष्म करता है, फिर सूक्ष्मकाययोग में क्षण मात्र रह करके तत्काल सूक्ष्म वचनयोग और मनोयोग का अपचय करता है, तिस के पीछे सूक्ष्म काययोग में क्षण मात्र रह कर सो केवली निजात्मानुभव को *छायाः-षण्मास्पायुषि शेषे उत्पन्नं येषा केवलज्ञानम् / ते नियमात्समुद्वातिनः शेषाः समुद्धाते भक्तव्या.॥
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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