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________________ 552 जैनतत्त्वादर्श दंडं प्रथमे समये, कपाटमथ चोत्तरे तथा समये / मंथानमथ तृतीये, लोकव्यापी चतुर्थे तु // संहरति पंचमे त्वन्तराणि मंथानमथ पुनः पष्ठे / सप्तमके तु कपाटं, संहरति तथाऽष्टमे दंडम् // [गुण क्रमा०, श्लो० 91 की वृत्ति ] अथ केवली समुद्घात करता हुआ जैसे योगवान् अरु अनाहारक होता है, सो कहते हैं। केवली समुद्घात करता हुआ प्रथम अरु अन्त समय में औदारिककाययोग वाला होता है, दूसरे छठे अरु सातमे समय. में मिश्रौदारिककाय योगी होता है। मिश्रपना इहां कार्मण से औदारिक का है / तथा तीसरे, चौथे अरु पांचमे समय में केवल कामणकाययोग वाला होता है / जिन समयों में केवली केवल कार्मण काययोग वाला होता है, तिन ही समयों में अनाहारक होता है। ___ अथ कौन सा केवली समुद्घात करता है, कौन सा नहीं करता है, सो कहते हैं। जिस की छः महीने से अधिक आयु शेप.है, जेकर उस को केवल ज्ञान होवे, वो तो निश्चय समुद्घात करे, अरु जिस की छः महीने के भीतर आयु होवे, उस को जो केवल ज्ञान होवे, तो भजना है, अर्थात वो केवली समुद्घात करे भी, अरु. नहीं भी करे। यदाहः
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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