________________ षष्ठ परिच्छेद 549 देशविरति और सर्वविरति का उपदेश करने से तीर्थकर नामकर्म को वेदते हैं / जेकर तीर्थंकर नामकर्म का उदय न होवे, तव कृतकृत्य होने से भगवान् को उपदेश देने का क्या प्रयोजन है ? इस वास्ते जो वादी भगवान् को निःशरीरी निरुपाधिक, मुखादि रहित और सर्वव्यापी मानते हैं, सो ठीक नहीं। क्योंकि देहादि के अभाव से वह धर्म का उपदेशक नहीं हो सकता है / जेकर उपाधि रहित, सर्वव्यापी परमेश्वर भी उपदेशक होवे, तब तो अव इस काल में अस्मदादिकों को क्यों उपदेश नहीं करता है ? क्योंकि पूर्वकाल में अग्नि आदिक ऋपियों को उसने प्रेरा, तथा ब्रह्मादि द्वारा चार वेद का उपदेश करा, तथा मूसा, ईसा द्वारा जगत् को उपदेश करा / तो फिर अव क्यों नहीं उपदेश करता? वह तो परोपकारी है, तो फिर देरी किस वास्ते ? जेकर कहो कि इस काल में सर्व जीव उपदेश मानने के योग्य नहीं हैं, इस वास्ते उपदेश नहीं देता, तब तो पूर्व काल में भी सर्व जीवों ने परमेश्वर का उपदेश नहीं माना है। प्रथम तो कालासुर प्रमुख अनेक जीवों ने नहीं माना, दूसरा अजाजील ने नहीं माना / और यहूदियों ने तथा कितनेक इसराइलियों ने नहीं माना, इस वास्ते पूर्वकाल में भी परमेश्वर को उपदेश देना योग्य नहीं था / जेकर कहो कि उस की वोही जाने कि उस ने पहले क्योंकर उपदेश दिया अरु अब किस वास्ते नहीं देता। तो फिर तुम क्योंकर कहते हो कि परमेश्वर