________________ जैनतत्त्वादर्श खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही अ॥ 2 // अपुन्चनाणग्गहणे, सुप्रभत्ती पवयणे पभावणया / एएहि कारणेहिं, तित्ययरत्तं लहइ जीवो // 3 // [आव०नि०, गा० 179-181] इन का अर्थ आगे लिखेगे / तिस वास्ते यहां सयोगी गुणस्थान में तीर्थकर नाम कर्मोदय से वो केवली त्रिजगत्पति-त्रिभुवनपति जिनेंद्र होता है / जिन सामान्य केवलियों को कहते हैं, तिन में जो इन्द्र की तरें होवे, सो जिनेंद्र जानना। ___ अथ तीर्थकर की महिमा कहते हैं / सो भगवान् तीर्थंकर पूर्वोक्त चौतीस अतिशय करके संयुक्त होता है, और सर्व देवता जिस को नमस्कार करते हैं, तथा सकल-मानवों ने जिस को नमस्कार करा है, सो सर्वोत्तम-सकल शासनों में प्रधान, तीर्य का प्रवर्तन करता हुआ उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि लग विद्यमान रहता है। ___ अय सो तीर्थकर नाम कर्म को तीर्थकर भगवान् जैसे भोगते हैं, सो कहते हैं / तीर्थंकर भगवान् पृथ्वी मण्डल में भव्यजीवों के प्रतिवोधने तथा योग्यतानुसार भव्य जीवों को क्षणलवतपस्त्यागा वैयावृत्त्यं समाधिश्च // 2 // अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना / एतैः कारणस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः // 3 // wwww