________________ 546 जैनतत्त्वौदर्श प्रकृति का क्षय करके क्षीणमोहांश हो करके केवल स्वरूप होता है / तथा क्षीणमोह गुणस्थानस्थ जीव दर्शन चतुष्क अरु ज्ञानांतरायदशक, उच्चैर्गोत्र, यशनाम, इन सोलां प्रकृति के बंध का व्यवच्छेद होने से एक सातावेदनी का बंध करता है / तथा संज्वलन लोभ, ऋषभनाराचसंघयण, इन के उदय का विच्छेद होने से सत्तावन प्रकृति को वेदता है। तथा उस में संज्वलन लोभ की सत्ता दूर होने से एक सौ एक प्रकृति की सत्ता है। ___ अब क्षीणमोहांत में प्रकृतियों की संख्या कहते हैं / चौथे गुणस्थान से लेकर क्षय होती हुई त्रेसठ प्रकृति क्षीणमोह में संपूर्ण होती है, अर्थात् इस बारहवें गुण स्थान में आ कर उन को वह सर्वथा नष्ट कर देता है। एक प्रकृति चौथे गुण स्थान में क्षय हुई, एक पांचमे, आठ सातमे, छत्तीस नवमे में, सतरा बारहवें में, यह सर्व वेसठ भई / तथा शेष पचासी प्रकृति तो तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान में केवल अत्यन्त जीर्ण वस्त्र समान रहती हैं। अथ सयोगि केवली गुणस्थान में जो भाव सम्यक्त्व ___ और चारित्र होता है, सो कहते हैं / इस सयोगिकेवली सयोगी गुणस्थान में सयोगी केवली आत्मा गुणस्थान को अतिविशुद्ध-निर्मल क्षायिक भाव होता है, और सम्यक्त्व परम-प्रकृष्ट क्षायिक ही होता है, तथा चारित्र भी क्षायिक यथाख्यात नामक होता